क्रिकेट बॉल के कूकाबुरा नाम के पीछे है ये कहानी

किक्रेट का जुनून भारत में दीवानगी की हद तक देखने को मिलता है. खेल की हर चीज पर दर्शको का ध्यान होता है, ऐसे में इसमें प्रयोग होने वाली गेंद कूकाबुरा के बारे में कुछ जानकारी भी दर्शकों को होना जरुरी है. तो जानिए कूकाबुरा के बारे में सब कुछ-

सदियों से किक्रेट के इतिहास में इस्तेमाल हो रही ‘कूकाबूरा’ गेंद वर्तमान समय में एक ब्रांड बन चुकी है. किक्रेट के मैदान में टेस्ट मैच से लेकर टी-20 खेलने के लिए इसका ही प्रयोग किया जाता है. असल में विश्व किक्रेट में अपनी अलग पहचान बना चुकी कूकाबुरा गेंद अन्य गेंदों की तरह ही फैक्ट्री में तैयार की जाती है, पर इस गेंद की मज़बूती और इसको बनाने के दौरान प्रयोग होने वाली साम्रगी इसको असाधारण पहचान दिलाती है. कूकाबुरा गेंद को किक्रेट पिच के अनुरुप ही तैयार किया जाता है. बेहद ठोस एवं वज़नी होने के कारण किक्रेट ग्राउंड पर कूकाबुरा गेंद काफी उछाल लेती है. असल में कूकाबुरा एक पक्षी का नाम है, जो आस्ट्रेलिया में पाया जाता है. इसी पक्षी के नाम पर कूकाबुरा कंपनी की स्थापना की गई, जो अब खेल के लिहाज़ से विश्व की सबसे बड़ी कंपनी बन चुकी है. कंपनी की स्थापना सन् 1890 में एल्फ्रेड थॉम्सन ने की थी.

माना जाता है कि थॉम्सन एक दिन अपने घर पर बैठे थे. इसी दौरान उनके दिमाग में विचार आया क्यों न गेंद बनाने की कोई कंपनी स्टार्ट की जाये. अब उनके सामने समस्या थी कि इसका नाम क्या होगा? वह उसका जवाब ढू़ंढ ही रहे कि उन्हें अचानक आस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले पक्षी कूकाबुरा का ख्याल आया. उन्होंने देर न करते हुए इसी के नाम पर कंपनी खोल दी और गेंद बनाना शुरु कर दिया. कुछ ही सालों में यह कंपनी आस्ट्रेलिया में काफी लोकप्रिय हो गई. बाद में यह पूरी दुनिया में अपने पैर पसारने में सफल रही. अंतर्राष्ट्रीय किक्रेट खेल के लिए तैयार की जाने वाली कूकाबुरा गेंद को बेहद मजबूती और बड़ी सावधानी से बनाया जाता है. कूकाबुरा गेंद को बिल्कुल ठोस बनाने के लिए रेड लेदर और मजबूत धागे को प्रयोग में लाया जाता है.

सबसे पहले रेड लेदर को धूप में सुखा कर उसको सख्त बनाया जाता है. उसके बाद उसे मशीनों द्वारा गेंद की गोलाई के बराबर गोल आकार में काटा जाता है. बॉल को अंदर से और ठोस बनाने के लिए बड़े पेड़ों की लकड़ी की छाल पीसकर उसका गोला बनाया जाता है. इसके बाद उस गोले पर धागे की मोटी परत चढ़ा दी जाती है, ताकि वह समतल रहे. आखिर में इस गोले को बॉल के अंदर भर कर सफेद धागे से मशीन द्वारा सिलाई कर दी जाती है. वैसे तो यह पूरी प्रक्रिया मशीनों के द्वारा की जाती है, लेकिन इसे फाइनल टच देने के लिए हाथों का ही प्रयोग किया जाता है. सुनकर थोड़ी सी हैरानी होती है, लेकिन सच तो यह है कि एक कूकाबुरा गेंद को बनाने में महज पंद्रह से बीस मिनट का समय लगता है. मौजूदा समय में कूकाबुरा अब न सिर्फ किक्रेट तक सीमित रह गया है, बल्कि हर खेल के मैदान में इस कंपनी का डंका बज रहा है. शुरुआती दौर में बेशक यह कंपनी किक्रेट बॉल बनाने तक सीमित रही, लेकिन अब कूकाबुरा कंपनी फुटबॉल से लेकर हॉकी के खेल के सामानों के लिए विश्व विख्यात हो चुकी है. यही कारण है कि कूकाबुरा कंपनी को प्रोमोट करने के लिए कई इंटरनेशनल किक्रेट खिलाड़ी आगे आ चुके हैं. इसमें आस्ट्रेलियाई किक्रेटर ग्लैन मैक्सवेल से लेकर मिचेल स्टार्क तक के नाम शामिल हैं. 

यूं तो कूकाबुरा गेंद 1890 में बनाई जाने लगी थी, लेकिन इंटरनेशनल मैचों में इसका इस्तेमाल 1946 में होना शुरु हुआ था. सबसे पहले यह ऑस्ट्रेलिया में होने वाले मैचों के दौरान इस्तेमाल की गई. फिर उसके बाद कूकाबुरा गेंद न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड में होने वाले मैचों में इस्तेमाल होने लगी. कूकाबुरा की फैक्ट्रियां आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, अफ्रीका, बांग्लादेश और इंडिया में भी है. यहां से यह किक्रेट बॉल तैयार कर खेल के मैदानों में पहुंचाई जाती है. इंटरनेशनल में प्रसिद्ध हो चुकी कूकाबुरा गेंद के दाम की बात जाये तो यह आम गेंदों से बहुत ज्यादा महंगी है. लोकल मैच में इस्तेमाल होने वाली अन्य लेदर गेंदो की तुलना में इस गेंद का दाम तीन गुना अधिक होता है. अन्य कंपनी की एक अच्छी लेदर बॉल की कीमत, जहां दो हज़ार रुपये से शुरु होती है, वहीं असली कूकाबुरा गेंद की कीमत 12 हज़ार रुपये से शुरु होती है.

 

 

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