23 मार्च 1931 को भगतसिंह ने फांसी के फंदे को चूमकर देश को अलविदा कहा था, 1931 से लेकर आज तक भगतसिंह की फांसी को पुरे 87 साल बीत चुके है लेकिन फिर भी भगतसिंह के लेख पढ़कर लगता है जैसे वह हमारे बीच मौजूद है और बस कल ही किसी रूप में 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा बुलंद कर सड़कों पर उतर जाएंगे. 21 वीं सदी का युवा एक फिर से राजनीति की तरफ झुका है, यह देखकर बेहद ख़ुशी होती है कि युवा बढ़चढ़कर राजनीति में हिस्सा ले रहा है, लेकिन कहीं न कहीं देश के नेताओं के भद्दे विचारों के आगे वो भेड़चाल चलने में मजबूर हो जाता है. हालाँकि अपनी बुद्धि का थोड़ा उपयोग कर आज का युवा मात्र भगतसिंह को ही पढ़ने लगे तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि भगत सिंह के विचारों से इन नेताओं को समझने में काफी मदद मिलेगी. भगतसिंह ने जुलाई 1928 में 'किरती' नामक एक पत्र में ‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार’ विषय से एक लेख लिखा, यह लेख उस दौरान लिखा गया था देश में असहयोग आंदोलन की असफलता से भारी निराशा का माहौल था, उस दौर में जब देश का युवा राजनीति में अपना नेता चुनने के लिए भटक रहा था, यह पत्र भगतसिंह ने उन सभी युवाओं के नाम लिखा था ताकि पंजाब के युवाओं को अपना लीडर चुनने में मदद मिले सके. उस समय देश में युवाओ का दौर था ऐसे में दो युवा नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस देश की राजनीति में चर्चा का विषय बने हुए थे. चूँकि दोनों नेता कांग्रेस से ही थे लेकिन दोनों की विचारधारा में काफी अंतर था. अमृतसर और महाराष्ट्र में हुए कांग्रेस के सम्मेलनों में दोनों के भाषण सुनने के बाद भगतसिंह ने यह लेख लिखकर युवाओं को अपना रास्ता चुनने में मदद की थी. भगतसिंह के अनुसार दोनों नेता कांग्रेसी और दोनों पूर्ण स्वराज्य को समर्थन करते है. दोनों देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे है, लेकिन फिर भी दोनों की विचारधारा में काफी अंतर है. एक तरफ सुभाष चंद्र बोस के नजरिये से आजादी को देखा जाए तो वह इसलिए आजादी चाहते थे क्योंकि अंग्रेज पश्चिमी सभ्यता से थे और हम पूरब के है, इसके विपरीत नेहरू के लिए आजादी के मायने थोड़े अलग थे, नेहरू आजादी के जरिए देश में स्वशासन लागू कर सामाजिक बदलाव करना चाहते थे. भगत सिंह के लेख के अनुसार सुभाष चंद्र बोस अंतराष्ट्रीय राजनीति को देश की सुरक्षा और विकास तक सिमित रख कर देखते है वहीं दूसरी और नेहरू अंतराष्ट्रीय राजनीति में खुले मैदान में कूद पड़े है, बोस जहाँ राष्ट्रवाद के दायरे में सिमित रहकर संघर्ष करते है वहीं नेहरू राष्ट्रवाद के दायरों से बाहर निकलकर भारत को अंतराष्ट्रीय स्तर पर देखना चाहते है. भगत सिंह हमेशा से उस दौर के नेताओं के बारे में लिखते रहे है, फिर चाहे उन नेताओं में गाँधी जी,लाला लाजपत राय ही क्यों न हो. भगत सिंह के आखिरी वक्त में फांसी से पहले भगतसिंह ने जवाहर लाला नेहरू और सुभाषचंद्र बोस को खुद के केस में रूचि लेने के लिए धन्यवाद पहुंचाया था. नेहरू और बोस ही वह शख्सियत है जिन्होंने भगतसिंह के केस में सबसे ज्यादा रूचि ली थी हालाँकि भगतसिंह यह तय कर चुके थे कि फांसी से ही आंदोलन को मुकाम पर जाने में मदद मिलेगी, और कुछ सालों बाद 1947 को वैसा ही हुआ. शहीद दिवस: देश तुम्हें आज भी बहुत याद करता है भगत..