दिलीप सिंह वर्मा की रिपोर्ट झाबुआ। होली के एक सप्ताह पूर्व से प्रारंभ आदिवासीयों का त्यौहार भगौरिया से लगाकर होली के तेरह दिनों बाद तक अर्थात एक माह तक आदिवासीयों के त्योहारों का अनवरत सिलसिला झाबुआ, आलिराजपुर जिलों में चालू रहता है। इन त्यौहारों के चलते आदिवासी जहां फसल पकने की खुशियां मनाता है तो अपने पारंम्परिक रिवाजों और मन्नतों को भी पूरा कर अपने परिवार की सुख समृद्धि की कामना अपने भगवान बाबा देव से करता है। होली के एक सप्ताह पूर्व प्रारंभ हुए भगौरिया हाट बाजार का उल्लास जिले में 1 मार्च को हुआ और अंतिम भगौरिया हाट आज 7 मार्च को भरा, अंतिम भगौरिया के साथ ही आज से भगौरिया हाट बाजार का समापन हो गया, अंतिम भगौरिया में आज थांदला और आंबुआ मेें भारी आदिवासी जन सैलाम उमडा और भगौरिया का आंनन्द लिया। 8 मार्च को धुलेडीं के दिन आदिवासी अपनी परम्पराओं के तहत घर में सुख, समृद्धि को लेकर रखी गई मन्नतों को पूरा करने के लिये गल धूमेंगे और चूल पर चलेगें। गल देवरा के तहत मन्नतधारी आदिवासी धुलेंडी के एक सप्ताह पूर्व से ही अपने सारे शरीर पर हल्दी का लेप लगाता है और शरीर पर धोती तथा क्रास लाल कपडा पहनता है, सर पर पगडी सफेद बांधी जाति है और गाल पर काजल से क्रास का चिन्ह बनाया जाता है तथा इसके हाथ मेें नारियल और कांच होता है। एक सप्ताह तक यह मन्नतधारी उपवास रखता है और फिर धुलेंडी के दिन शाम को 4 से 6 बजे के बिच गांव के बहार एक खुले मैदान में गल देवरा घुमा जाता है। गल एक लकडी का 20 से 25 फिट उंचा मंचान होता है,जिस पर एक आडा लकडी का खंबा बंधा होता है। इस पर मन्नतधारी आदिवासी को रस्सी से बांध कर मचान के निचे खडे आदिवासी चारों और रस्सी से घुमाते है तथा पांच से सात बार परिक्रमा करते है। गल देवरा के मचान के निचे गांव का बडवा, पटेल पूजा अर्चना करवाता है और फिर बकरे की बली दी जाती है, बकरे का सिर बडवा, पटेल को जाता है तथा शेष बकरा मन्नतधारी के परिजन को सौंप दिया जाता है। फिर रात में ग्रामवासी मांस और मदिरा का सेवन कर धुलेंडी का आंनद लेते है। इस प्रकार से गल देवरा जिले के प्रत्येक गांवों में बने होते है। जोकि लाल रंग से पूते रहते है। धुलेंडी पर जिले भर में गांव-गांव में इस प्रकार के सैकडों गल देवरा में आदिवासी घूमकर अपनी मन्नतें पूरी करते है। अनुमान के तौर पर घुलेंडी के अवसर पर गल देवरा को जिले में प्रसन्न करने के लिये लगभग सैकडों से ज्यादा बकरों की बलि दे दी जाती है। इसी प्रकार से कई गांवों में चूल पर आदिवासी चलकर मन्नत पूरी करते है। इसके लिये 10 से 15 फिट चौड़ी और लंबी खाई नुमा भट्टी तैयार की जाकर उसमें धधकते अंगारे तैयार किये जाते है तथा इन अंगारों पर आदिवासी नंगे पैर चलकर अपनी मन्नत पूरी करते है। जहां पर भी गल व चूल चलते है वहां पर मैला सा भरता है गांव के तथा आसपास के सैकडों आदिवासी और लोग इसमें शामील होते हे। गल देवरा धूमते हुए तथा चूल पर चलते लोगों को दिल थाम कर देखते है। दुकाने सजती है, झूले चक्करीयां भी लगाई जाती है जिसमें लोग आंनद लेते है। सूर्यास्त तक यह क्रम चलता है फिर ग्रामीण अपने घरों को लौटने लगते है जहां रात्री में मांस व मदिरा का सेवन कर आंनद में डूब जाते है। त्यौहारों के इसी क्रम मेें आदिवासी सितला सप्तमी और गढ जैसे त्यौहारों को भी बडे ही उत्साह एवं उल्लास के साथ मनाते है। होली के बाद तेरस को अंतिम त्यौहार के रूप में गढ का त्यौहार मनाकर फिर से आदिवासी समाज अपने काम काज में जुट जाता है। मध्यप्रदेश में गाय के बछड़े के साथ कुकर्म, आरोपी पर केस दर्ज बेमौसम बारिश के चलते किसानों को हो रहा भारी नुकसान शराब पी कर ड्राइव करने पर देना होगा स्ट्रेट लाइन टेस्ट