क्या थी और अब क्या हो गई दिल्ली, 1947 के बाद बदल गई राजधानी की तस्वीर

नई दिल्ली: वर्ष 1947 में मुल्क के दो टुकड़े कर कर दिए गए थे तो शम्सुद्दीन का परिवार बंटवारे का दंश झेलता हुआ लाहौर से लखनऊ आकर बस गया. शम्सुद्दीन बोलते है कि लखनऊ कुछ जमा नहीं तो उनके पिता अगले वर्ष ही दिल्ली पहुंच गए. वैसे तो चांदनी चौक में पहले से ही उनके कुछ रिश्तेदार रहते थे. इसलिए उनके परिवार ने भी अपना जीवन यापन करने लग गए.  वर्ष 1951 में शम्सुद्दीन जन्मे थे. छुटपन से लेकर जवानी और अब बुढ़ापा चांदनी चौक की इन्ही गलियों और कूचों में बीता. वहीं चांदनी चौक में उनकी एक कपड़े की छोटी सी शॉप है,  जो दशकों से दुल्हनों के लहंगे से लेकर बाकी कपड़ों का व्यपार करती है. 

खबरों का कहना है कि शम्सुद्दीन ने जन्म से ही दिल्ली और यहां की सियासत को बहुत ही पास से देखा है. इतने वर्षों  में दिल्ली में कितना परिवर्तन हो गया? बड़े सुकून से इसका उत्तर देते हुए वह बोलते हैं कि मेरा तो जन्म ही ऐसे माहौल भी बन चुका है, जब दिल्ली में और भी ज्यादा हलचल बढ़ गई थी. भारत को आजाद हुए कुछ ही वर्ष  हुए थे. मैंने तो 60 और 70 के दशक की दिल्ली भी देखी है और आज की दिल्ली भी देख रहा हूं. इंदिरा और राजीव को भी देखा है, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी को भी...  

शम्सुद्दीन का इस बारें में कहना है कि 'मेरे पिता पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बहुत ही बड़े फैन थे. मुझे भी नेहरू  बहुत ही पसंद थे. मुझे याद है कि पंडित नेहरू जामा मस्जिद के पास बनी मौलाना आज़ाद की क़ब्र पर हर वर्ष जाय करते थे, उस वक़्त उनके साथ सिक्योरिटी का बंदोबस्त भी नहीं था. इसे लेकर उस वक़्त घर-कूचे में बहुत बातें भी होती थी कि नेहरू जी बिना सिक्योरिटी के लिए वहां रहते थे. नेहरू असल में खुश मिजाज थे. शांत स्वभाव के रहे. इतना ही नहीं आसानी से लोगों के साथ जुड़ जाते थे. आज के वक़्त में इतने बड़े कद के किसी नेता को बिना सिक्योरिटी को भी देख सकते है क्या? एक अदना सा पार्षद इतने रौब में चलता है, मानो किसी रियासत का राजा हो. 

शम्सुद्दीन को दिल्ली से जुड़े कई स्टोरी भी है. वह बोलते हैं कि एक बार राजीव गांधी प्रचार करने चांदनी चौक चले गए थे. यहां रैली के बीच उन्होंने अपनी सिक्योरिटी भी पूरी तरह से हटाने का एलान कर दिया था तो उनसे बहुत बोला  गया कि मुस्लिम क्षेत्र है, कुछ अनहोनी का भी शिकार हो सकते है लेकिन वे नहीं माने. उन्होंने बिना सिक्योरिटी के यहां रैली का भी है. चांदनी चौक तो ऐसा स्थान है, यहां के लोगों ने सभी का दिल खोलकर स्वागत भी करते हुए दिखाई दिए थे. ऊपर से तब दिल्ली ऐसी नहीं थी, वो दौर अलग था, उस समय अलग मिजाज के हुआ करते थे. 

45 वर्षों से दिल्ली में रह रहे राम गोपाल भी कुछ इसी तरह पुराने दिनों को याद करते हुए बोला है कि मुझे कई बार रह-रहकर पुराने दिन भी याद करते है. तब आज की तरह ना भीड़भाड़ थी, ना शोर-शराबा. जिदंगी में एक ठहराव भी देखने के लिए मिल रहा था. मैं वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में बागपत से दिल्ली ही आ गया था. शुरुआत में बाहरी दिल्ली के एक छोटे से गांव में कुछ वर्ष ही था. उस गांव का नाम- हिरण कूदना था. वो यूपी और हरियाणा के किसी गांव के जैसे है. आजकल के गांव कहां गांव में ही रहने लगे? कहने के लिए तो वह गांव ही था, लेकिन उस दौर में लोगों के अंदर आत्मीयता भी देखने के लिए मिली थी. अपनापन साफ़ तौर पर दिखाई देता था. पड़ोस में सभी मिल-जुलकर खाना खाया करते थे. कभी एक दिन ऐसा नहीं गया जब एक ही सब्जी खाने के लिए मिली हो. अपनी आलू-मटर की सब्जी के साथ-साथ पड़ोसियों की लौकी, बैंगन और कढ़ी भी परोस दी जाती थी. अब तो पता ही नहीं चलता कि बगल के मकान में रह कौन रहा है? 

गवर्नमेंट जॉब्स से रिटायर हुए राम गोपाल को एक अरसा हो चुका है. वह बोलते हैं कि 1984 के दंगों के उपरांत मैं अपने परिवार के साथ रोहिणी में बस गया. इंदिरा गांधी की हत्या और बाद में हुए दंगों की यादें आज भी उनके जेहन में अब भी बहुत ही ताजा है. वह इस बारें में जानकारी देते है कि 'मैं किसी काम से दिल्ली कैंट के लिए गया था. खबर फैल गई कि इंदिरा जी को गोली भी लग गई. उस समय तो कुछ भी क्लियर नहीं हो पा रहा था, 100 लोग 100 तरह की बातें करते है. बाद में पता चला की सिखों ने गोली भी मार दी थी. सच कहूं सिर्फ सिखों में खौफ नहीं था.. मुसलमानों में भी एक तरह का खौफ था. उस समय जिस तरह की लूटपाट और मारकाट हुई, इतने वर्षों के पश्चात भी भुलाए नहीं भूली जाती. 

 

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