गुड़ इवनिंग शायरियां

अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ शाम आ गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या.

अब तो चुप-चाप शाम आती है पहले चिड़ियों के शोर होते थे..

अब उदास फिरते हो सर्दियों की शामों में इस तरह तो होता है इस तरह के कामों में.

अब याद कभी आए तो आईने से पूछो 'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते.

अस्र के वक़्त मेरे पास न बैठ मुझ पे इक साँवली का साया है.

ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा फिर इस के ब'अद बहुत याद घर की आएगी.

दोस्तों से मुलाक़ात की शाम है ये सज़ा काट कर अपने घर जाऊँगा.

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है.

गुज़र गई है मगर रोज़ याद आती है वो एक शाम जिसे भूलने की हसरत है.

जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी.

कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ.

कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए.

कौन समझे हम पे क्या गुज़री है 'नक़्श' दिल लरज़ उठता है ज़िक्र-ए-शाम से.

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