जब संसद पर पाकिस्तानी आतंकियों ने किया हमला, भरा नहीं है 23 साल पुराना जख्म

नई दिल्ली: 13 दिसंबर 2001 का दिन भारतीय इतिहास में ऐसा दिन है जिसे कोई भुला नहीं सकता। यह दिन लोकतंत्र पर एक सीधा हमला था, जब आतंकवादियों ने भारतीय संसद भवन पर हमला करके पूरे देश को हिला दिया। यह घटना आतंकवाद की दुस्साहसिकता और भारत की सुरक्षा व्यवस्था की गंभीर चुनौतियों को उजागर करती है। 

सुबह 11:40 बजे, जब संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था, पांच आतंकवादी सरकारी कर्मचारियों के वेश में एक सफेद एंबेसडर कार से संसद परिसर में घुसे। कार पर नकली स्टिकर और लाल बत्ती लगी हुई थी। आतंकवादियों का इरादा न केवल बड़े पैमाने पर तबाही मचाने का था, बल्कि वे सांसदों को भी निशाना बनाना चाहते थे। लेकिन सतर्क सुरक्षाकर्मियों ने उनकी कार को रोककर उनके मंसूबों को आंशिक रूप से नाकाम कर दिया। इसके बाद लगभग 30 मिनट तक मुठभेड़ चली, जिसमें पांचों आतंकवादी मारे गए। हालांकि, इस हमले में नौ सुरक्षाकर्मियों ने सर्वोच्च बलिदान दिया। 

इस हमले की जड़ें 1999 में हुए IC-814 विमान अपहरण से जुड़ी हुई थीं। उस समय इंडियन एयरलाइंस के विमान को कंधार ले जाया गया था, और आतंकियों ने मसूद अजहर की रिहाई की मांग की थी। अजहर, जो एक रिपोर्टर के वेश में भारत आया था, कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के उद्देश्य से काम कर रहा था। उसकी रिहाई के बाद ही जैश-ए-मोहम्मद जैसे खतरनाक आतंकवादी संगठन की नींव पड़ी। 

पुलिस और खुफिया एजेंसियों के लिए संसद हमले की जांच बेहद चुनौतीपूर्ण थी, क्योंकि सभी आतंकवादी मारे जा चुके थे और उनके इरादों को जानने का कोई सीधा स्रोत नहीं था। जांच का मुख्य आधार उन सुरागों पर था जो योजनाकारों तक पहुंचने में मदद कर सकते थे। प्रारंभ में शक लश्कर-ए-तैयबा पर गया, लेकिन जांच का फोकस जैश-ए-मोहम्मद की ओर मुड़ा और अफजल गुरु को हमले का मुख्य साजिशकर्ता माना गया। उसे 2013 में फांसी दे दी गई। 

यह हमला भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को चरम पर ले गया। भारत को उम्मीद थी कि वह पाकिस्तान को इस हमले की कीमत चुकाने पर मजबूर करेगा। उस समय भारतीय सीमा पर सैनिकों की सबसे बड़ी तैनाती हुई। इस कार्रवाई ने पाकिस्तान को स्पष्ट संदेश दिया कि वह भारत का सामना करने में सक्षम नहीं है। लेकिन एक पूर्ण युद्ध की संभावना को अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण छोड़ दिया गया। 

इस हमले के परिणामस्वरूप मसूद अजहर ने एक नए आतंकवादी संगठन, जैश-ए-मोहम्मद की स्थापना की। उसकी रिहाई के समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भारत को आश्वासन दिया था कि अजहर शांत रहेगा, लेकिन यह वादा जल्द ही टूट गया। अजहर ने पाकिस्तान पहुंचते ही बड़ी रैली आयोजित की और अपने इरादों को जाहिर किया। जैश-ए-मोहम्मद ने भारत में और हमलों की योजना बनानी शुरू की, और संसद पर हमला उनकी ताकत दिखाने का एक जरिया बन गया। 

यह हमला भारत की सुरक्षा व्यवस्थाओं की कमजोरियों को उजागर करता है। उस समय खुफिया एजेंसियां आतंकवाद से जुड़े मामलों में पूरी तरह सक्षम नहीं थीं। राज्य की एजेंसियों की भूमिका सीमित थी, और केंद्र सरकार पर ही पूरा भार था। हाल के वर्षों में, राज्य और केंद्र की एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय और सूचना साझाकरण ने आतंकवाद के मामलों को सुलझाने में मदद की है। 

पाकिस्तान के साथ भरोसे की कमी और उसकी दोहरी नीतियां इस घटना से स्पष्ट हुईं। मसूद अजहर जैसे आतंकी नेताओं को पाकिस्तान ने हमेशा समर्थन दिया और कभी उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं की। संसद पर हमले के बाद भी अजहर पाकिस्तान में हीरो बना रहा, और उसे डीप स्टेट का संरक्षण मिला। इस हमले ने भारत को कई अहम सबक सिखाए। सबसे महत्वपूर्ण यह कि पाकिस्तान पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका जन्म ही भारत के खिलाफ हुआ है। यह हमला भारत की आतंकवाद विरोधी रणनीतियों में बदलाव का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। सुरक्षा उपायों को बढ़ाया गया और आतंकवाद निरोधक कानूनों को और सख्त किया गया। 

संसद हमले की घटना पुलवामा हमले और उसके बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक जैसी घटनाओं की भूमिका भी तय करती है। बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद की सबसे बड़ी प्रशिक्षण सुविधा को निशाना बनाना भारतीय सेना की नई आक्रामक रणनीति को दर्शाता है। यह स्पष्ट करता है कि भारत अब किसी भी आतंकवादी हरकत को हल्के में नहीं लेगा।  यह घटना हमेशा भारत को याद दिलाएगी कि आतंकवाद से निपटने के लिए सतर्कता और तैयारी बेहद जरूरी है। भारतीय संसद पर हमला केवल एक इमारत पर हमला नहीं था, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र, सुरक्षा और संप्रभुता पर सीधा प्रहार था। इस घटना ने देश की राजनीतिक और सुरक्षा संरचनाओं को न केवल मजबूत किया, बल्कि इसे आतंकवाद से निपटने के लिए और अधिक सक्षम भी बनाया।

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