सुबह सुबह जब आँख खुली तो पहली आवाज जो मेरे कानो में एक तेज स्वर से आई वो थी उस फैरीवाले की, जो फेरी पर सामना बेचने चला था. सामान थे उसके पास, वो स्टील के बर्तन वो पुरानी लकड़ी की अलमारिया और वो पुरानी घडी. साथ ही घड-घड की आवाज करता वो पुराना से ठेला. जिसे धकेलते हुए और धीमे-धीमे कदमो के साथ अहिस्ता-अहिस्ता बढ़ता हुआ वो फैरीवाले. पर एक बात उसकी और आकर्षित करा रही थी. यह आकर्षण उसकी ध्वनी में अपने ग्राहक को लालायित करने वाली कुछ सुनहरी और आकर्षक छुट. छुट भी कोई कम नहीं साहब हर सामान पर कीमत से पूरे 50 रूपए छुट. जी हाँ सही सुना आपने पूरे 50 रूपए. अब इस आकर्षक ऑफर के बाद भी लोग उस फैरीवाले के ग्राहक बनने को तैयार नहीं थे. मेने इसे सस्ते ऑफर को हाथ से नहीं जाने दिया और दो चार अपने ग्राहक वाले अधिकारों का हावाला देते हुए उस ऑफर में और भी ज्यादा छुट करवा ली. लेकिन क्या मेने उस सामान का सही मूल दिया यह अभी तक विचाराधीन है. खरीदने की ख़ुशी इस अलमारी की क्या बताऊ अपने कमरे में किताबो का घर बनेगी ये मेरी प्यारी अलमारी. पर कमरे में रखते है इस अलमारी ने अपने प्राण छोड़ दिए. हाय! रे मेरी फूटी किस्मत, क्या करू अब ये अलमारी तो पल भर का ही सुख दे सकी मुहि. अब में जो कुछ पल पहले एक जाग्रत ग्राहक था अब मजबूर ग्राहक बन गया, यहाँ मुझे ग्राहकों के अधिकार याद न आये. क्योकि सामान के उचित मूल का ज्ञान किसे था क्योकि जनाब हम तो बारगेनिंग के उस्ताद है कहा किसी सामान को उचित मूल्य पर खरीदते है. पर मेरी अकल पर पत्थर आज ही के दिन पड़ना था जिस दिन उपभोक्ता के अधिकारों का जन्म हुआ था. जी हाँ आज ही के दिन 15 मार्च 1942 को उपभोक्ताओ के अधिकार का जन्मदिन पहली बार मनाया गया था. लेकिन किस्मत का न पूछो,अब ये 'अधिकार के वार' को केसे चलाऊ. अब अपने एक अधिकार से सबको जगाने के लिए समय कहा से निकालू. ग्राहक के अधिकार के लिए अपने काम का नुक्सान केसे करू. अगर जो करने गया अपने अधिकारों का उपयोग तो कही अपने काम से हाथ न धो बैठू और इसी डर से छोड़ दिया अपने उस अधिकार का प्यार और लंबी साँस खिंचकर बस किस्मत को दोष दे दिया. अब आप ही बातये क्या करता मैं अपने उस अधिकार का, जिसके लिए मुझे कुछ नुकसान उठाना पड़े. लेकिन शायद मेरी यही सोच मुझे पीछे करती है इस समाज को आगे बढाने से. अगर उपयोग करता अपने अधिकारों का तो में मिशाल भी बन सकता था, उन लोगो के लिए जो डरते है घबराते है अधिकारों की इस ताकत को अपनाने से. और हर बार यही सोचते है कि कही अपना नुकसान न करा ले. लेकिन बस एक ही बात कहना चाहता हूँ की डर के मत भागो, जागो ग्राहक जागो. वेसे मेरी इस लाइन से आपको हमारा राष्ट्रिय चेनल दूरदर्शन तो याद आया होगा जिसमे एक प्रोग्राम आता था लगभग 2 मिनिट 25 सेकेण्ड का जिसकी लाइन भी यही थी जागो ग्राहक जागो. जिसमे ग्राहक के अधिकारों के साथ साथ उसे किसी भी सामान की खरीददारी से समबन्धित कुछ एसी जानकारियां दी जाती जिससे उसे अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने सामान की शुद्धता का भी ज्ञान हो जाता था. लेकिन अब हर ग्राहक जाग गया है. और अब हर सामान को अपनी समझदारी और सूझ-बुझ से चयनित करता है. वेसे आप भी है न उन ग्राहकों में से जो अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत है. आप भी है न उनमे से जो सस्ते-महंगे के पीछे नहीं भागते तो आपको मेरा सलाम. और जो आज भी इसी सोच में पिछड़े है तो उन्हें बस यही कहना चाहूंगा कि सस्ते-महंगे के पीछे मत भागो, जागो ग्राहक जागो.