सरहदें बनी पर सरहदों ने, जाने कितने शब्द खड़े कर दिए .
जिसका जिक्र ना जिन्ना ने किया, जिसके उत्तर ना पंडित ने दिए .
जिन सवालों के जवाब पाने को, आज भी खड़ी है कतार .
जिनके सर तो बच गए. मगर कट गए ज़ज्बात .
पूछ रहे है कौन थे वो, जिनके हाथो में थी तलवार .
और कौन थे वो लोग, जो भागकर भी नहीं बचा पाए अपनी जान .
क्यों छोड़ना पड़ा उनको, अपना खेत घर और गांव .
और क्यों छोड़ना पड़ा बड़ का वो पेड़, जिसकी रहती थी गहरी छांव .
दो जमीं के टुकड़ों ने दिल के साथ, देश के भी हजारो टुकड़े कर दिए .
कुछ तो बोगियां भरकर आ गयी, और कुछ सिंधु नदी में ही सड़ गए .
कुछ जिन्दा थे तो पैदल चले, भूखे और थोड़े से भार से .
कुछ ने सोचा शायद आ जायेंगे, इसलिए लगा दी कुण्डी द्वार पे .
किसी की फसल खड़ी, गाय बंधी रह गयी .
थेपना थे सुबह कंडे, गोबर की वो थेप धरी रह गयी .
मुन्ने का स्कूल बैग, खूंटी पर टंगा रह गया .
कह रहा है मारेंगे मास्टर जी, यदि कल स्कूल नहीं गया .
पर उस छोटी सी जान को क्या पता, स्कूल सरहदों में सिमट गए .
यह गांव अब अपने नहीं रहे, दो देशों में बंट गए .
उसको कौन समझाए, तू सलीम के घर जा नहीं सकता .
उसको कौन बताये, तू हूसैन के बरामदे में खेल नहीं सकता .
पर जब छोड़ दिया गांव तो खड़ा है, जवाब पाने को .
आज भी जिद कर रहा है वह, मुस्लिम बहन से राखी बंधवाने को .
कोई भी उसकी बात का, जवाब देने पर मजबूर है .
जो छोड़ा गांव, वो आज इतनी दूर है .
चाहकर भी अब वहां, दिल कहता है ना जाया जाये .
पहले तो बोगियां भरकर आ गयी थी लाशों की, अब जाने क्या पता लाशें बोगियों के निचे आ जाये .
याद है कुछ को अभी, कटे हुए सर और हिलते हुए धड़ .
याद है कुछ को अभी, बंधी हुई गाय और छाया हुआ बड़ .
फिर भी कह रहा है हम ना आये तो, घर में तुम डेरा डाल लेना .
बछड़े को दूध पिलाकर, गाय को चारा डाल देना .
थोड़े दिन बाद पाक जाए फसल तो, उसको काट लेना .
खाने इतनी रखना, बाकी की बेच देना .
उन पैसों से घर के, खपरेल ठीक करवा लेना .
बाकि के बचे पैसों से, बच्चों को अच्छी तालीम देना .
घर अब तुम्हारा ही है, सब हंसी ख़ुशी मिलकर रहना .
पर प्रार्थना है खूंटी पर टंगा है मुन्ने का बस्ता, तुम उसकी किताबें मत फाड़ देना .
वरना मैं उसके सवालों का जवाब, अब दे ना पाउँगा .
माँ को काटकर सरहदें बना दी, इसलिए वहां अब मैं आ ना पाउँगा .
कवि - बलराम सिंह राजपूत