जम्मू—कश्मीर में लागू अनुच्छेद 35ए को लेकर आज भारत में बहस छिड़ी हुई है। एक पक्ष चाहता है कि इसे न हटाया जाए, तो दूसरा पक्ष इस आर्टिकल को संविधान से हटाने के पक्ष में हैं। इनका कहना है कि यह देश के नागरिकों के साथ भेदभाव है।
अगर इस अनुच्छेद के इतिहास को उठाकर देखें, तो यह हड़बड़ाहट में लागू किया गया था। राष्ट्रपति ने 1954 में इसे अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर संविधान में डलवाया था। यानी की बिना किसी प्रावधान और प्रक्रिया के इस आर्टिकल को लागू किया गया, जो आज नासूर बनता जा रहा है। इस आर्टिकल के तहत जम्मू—कश्मीर के नागरिकों को विशेष अधिकार दिए गए हैं। इस अनुच्छेद के तहत जम्मू—कश्मीर में किसी अन्य राज्य का व्यक्ति न तो जमीन खरीद सकता है और न ही यहां पर सरकारी नौकरी कर सकता है। जबकि जम्मू—कश्मीर के लोग देश में कहीं पर भी जमीन खरीद सकते हैं और नौकरी भी कर सकते हैं। इतना ही नहीं अन्य राज्यों के छात्रों को भी जम्मू—कश्मीर में स्कॉलरशिप नहीं मिलेगी, जबकि जम्मू—कश्मीर के छात्र देश भर में कहीं भी स्कॉलरशिप के लिए आवेदन कर सकते हैं। इस तरह यह अनुच्छेद देश के नागरिकों में भेदभाव करता है।
अब अगर हम गहराई से भारतीय संविधान का अध्ययन करें, तो संविधान में हमें कुछ मूल अधिकार दिए गए हैं। संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत देश के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार प्राप्त हैं और राज्य उनसे किसी भी लिंग, जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता, लेकिन जम्मू—कश्मीर में 35ए के तहत राज्य इस तरह का भेदभाव नागरिकों से करता है। इसलिए देखा जाए, तो 35ए संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों का सीधा उल्लंघन है और इसे संविधान से हटा देना ही देशहित में होगा।
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