16 दिसंबर की तारीख देश के किसी व्यक्ति के लिये भले ही महत्वपूर्ण हो या न हो लेकिन भारतीय सेना और जिन परिवारों ने अपने बेटे देश के लिये बलिदान किये है, उनके मन में जरूर 16 दिसंबर की स्मृतियां संजोए होगी। यह वही 16 दिसंबर है जब हमारी जाबांज भारतीय सेना ने पाकिस्तान पर विजय प्राप्त कर बांग्लादेश का सृजन किया था। यह बात 1971 की जरूर है, परंतु जिसके मन में देश प्रेम का जज्बा है या 16 दिसंबर के महत्व को जानते है, वे जरूर इस दिन उन शहीदों का स्मरण जरूर करेंगे जिन्होंने पाकिस्तान को पराजय करते समय अपने प्राण देश के खातिर न्यौछावर कर दिये थे।
कहते है कि काल, परिस्थितियों और समय के थपेड़ों में पुरानी स्मृतियां धुंधली पड़ने लगती है या फिर कुछ याद ही नहीं रहता है, परंतु 16 दिसंबर ऐसा दिवस है, जिसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। अर्थात ’जब तक सूरज चांद रहेगा....16 दिसंबर याद रहेगा....। यहां कहने में गुरेज नहीं है कि देश के लिये शहीद होने वाले किसी सैनिक के प्रति एक दो दिन तो आदर सम्मान रहता है और लोग दुश्मन देश के प्रति शब्दों की आग भी उगलते है, सरकार भी सम्मान स्वरूप शहीद सैनिक का अंतिम संस्कार करवाने में मदद करती है, मदद की घोषणा होती है परंतु बाद में सब कुछ भूला दिया जाता। देश की रक्षा करने वाला सैनिक किसी सम्मान का मोहताज नहीं होता और न ही उसकी इच्छा रहती है कि मरने के बाद लोग उसे याद करें, लेकिन इतना जरूर वह चाहता है कि जिसकी हिफाजत लहू से उसने की, उस तिरंगे को दिल में जरूर बसाकर रखा जाये।
’’ ये बात हवाओं को बताये रखना
रोशनी होगी चिरागों को जलाये रखना
लहू देकर जिसकी हिफाजत हमने की
ऐसे तिरंगे को सदा दिल में बसाये रखना। ’’
वस्तुतः 1971 के दौरान भारतीय सेना के पास न तो आधुनिक संसाधन हुआ करते थे और न ही मौजूदा समय इतनी सैनिकों या अफसरों की संख्या, बावजूद इसके पाकिस्तानी सेना को धुल चटाते हुये हमारे सैनिकों ने बहादुरी का परिचय दिया। जब देश की बात आ जाती है तो फिर हौसले और अधिक बुलंद हो जाते है और हौसले बुलंद होते है तो फिर पराजय स्पर्श तक नहीं कर सकती, यही उस वक्त भी हमारी सेना के साथ हुआ होगा, इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं होना चाहिये।
पाकिस्तानी सेना को पराजय कर अपने समक्ष घुटने टेकने पर मजबूर करने वाली भारीतय सेना ने अपने आपको समय के अनुसार मजबूत किया है और इसका परिणाम कई बार हमे प्रत्यक्ष रूप में देखने को परिलक्षित हुआ है। चाहे कारगिल का युद्ध हो या फिर चाहे पाकिस्तानी आतंकियों की घुसपैठ ही क्यों न हो, सेना ने अपनी सक्षमता का परिचय देते हुये हर बार देश की सीमाओं की रक्षा की है। इरादों को नहीं डिगने दिया सेना ने विपरित परिस्थितियों में भी सेना ने अपने इरादों को डिगने नहीं दिया है और यही कारण है कि हम देशवासी बेफिक्री की सांस ले रहे है।
पाकिस्तान पर विजय प्राप्त करने के अवसर पर विजय दिवस का आयोजन किया जाता है, यह बात सेना जानती है या फिर अखबारों द्वारा कहीं कोने कुचेले में दो काॅलम का समाचार प्रकाशित कर दिया जाता है तो जनता को मालूम पड़ जाती है कि अरे ! आज विजय दिवस है और फिर चंद सेकेंड खबर पर नजर डालकर व्यक्ति अपने कार्यों में व्यस्त हो जाता है, मगर सेना को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसका तो काम ही सीमाओं की हिफाजत कर, दुश्मन को जवाब देना है। वैसे तो सेना का मनोबल हमेशा से ही उॅंचा बना हुआ है, परंतु राजनीति की चरम पराकाष्ठा ने सेना को भी घसीटा है, कम से कम सेना के साथ तो ऐसा नहीं होना चाहिये। सर्जिकल स्ट्राइक इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
हालांकि सेना ने एक शब्द भी नहीं कहा, लेकिन जिस तरह से राजनीतिक झंझावातों में सेना को उलझाया गया, उससे मनोबल कमजोर होना स्वाभाविक ही है, तथापि सेना अपने काम को अंजाम दे रही है। उसके लिये तो हर दिन को विजय दिवस बनाना है। आतंकियों की घुसपैठ थमने का नाम नहीं ले रही है, पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है तो वहीं चीन भी बार-बार आंखें तरेरता है, फिर भी सेना हिमालय की तरह खड़ी हुई है। तूफानों का सामना हर दिन सेना को करना है, चाहे फिर देश की स्थितियां कुछ भी क्यों न हो।
यहां डाॅ. शिवमंगल सिंह सुमन की ये पंक्तियां प्रासंगिक है
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिंधु ने विष उगला है लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिंधु में साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ल
हरों के स्वर में कुछ बोलो इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी कभी मिलता है तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।
- शीतलकुमार ’अक्षय’