जकात यानि दान का जिक्र हर मजहब में है. मिसाल के तौर पर जैन धर्म (मजहब) में जिस अपरिग्रह (जरूरत से ज्यादा धन/वस्तुएं अपने पास नहीं रखना) की बात की गई है उसकी बुनियाद में जकात (दान) ही तो है यानी जखीरा (संग्रह) मत करो और जरूरतमंदों को बांट दो/ दान कर दो. ऐसे में रमज़ान के माह में दान देने का भी एक नियम होता है. इसमें कुछ नियम दिए गए हैं जिसको मानते हुए जकात देनी चाहिए.
यह त्याग दरअसल जकात की ही तो पैरवी है. बाइबल में भी कहा गया है कि 'फ्रीली यू हेव रिसीव्ड /फ्रीली यू गिव' यानी तुम्हें खूब मिला है. तुम ख़ूब दो (दान करो).' ऐसे ही 9 वां रोजा भी इसी के लिए होता है. इस्लाम मजहब में भी जकात की बड़ी अहमियत है. क़ुरआने-पाक के पहले पारे (प्रथम अध्याय) अलिफ़-लाम-मीम की सूरह अल बकरह की आयत नंबर तिरालीस (आयत-43) में अल्लाह का इरशाद (आदेश) है 'और नमाज कायम रखो और जकात दो और रुकूअ करने वालों के साथ रुकूअ (दोनों हाथ घुटनों पर रखकर, सिर झुकाए हुए अल्लाह की बढ़ाई/महिमा का स्मरण करना) करो.'
जकात, दोस्ती का दस्तावेज तो है ही रोजे का जेवर भी है. जकात का जेवर रोजे की जैब-ओ-जीनत (गौरव-गरिमा) बढ़ाता है. जकात में दिखावा नहीं होना चाहिए. जकात का दिखावा, 'दिखावे' की जकात बन जाएगा. दिखावा (आडंबर) शैतानियत का निशान है, इंसानियत की पहचान नहीं. रूहानियत की ताक़त है रोजा, रोजे की ताकत है जकात. हजरत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़र्माया 'रोजा रखते हुए शख़्स को बुरी बात कहने से बचना चाहिए, यह भी जकात है.
दुश्वारियों को दूर करता रमज़ान का सांतवा रोजा