देश में अभी IPL2018 का बुखार चढ़ा हुआ है. कुछ लोग क्रिकेट देखते है, कुछ क्रिकेट जीते है और देखने और जीने के साथ साथ ही कुछ क्रिकेट एक्सपर्ट हो जाते है. एडवांस तकनीक ने टेलीविजन पर मैच देखने का आनंद दोगुना कर दिया है. आइपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग के 11वें सीजन के मौके पर जानते हैं तकनीक ने आपके पसंदीदा खेल को कितना रोमांचक बना दिया है. क्रिकेट पर ऐसी ही पैनी नज़र वालों के लिए क्रिकेट से जुड़े तकनीकी बदलाव, उनकी काबिलियत और काम के तरीके पर एक रिपोर्ट.
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 19वीं सदी तक क्रिकेट में अंडरहैंड बॉल का इस्तेमाल होता था, लेकिन 1862 में ओवर आर्म गेंदबाजी को लेकर एक ब्रिटिश खिलाड़ी ने मैदान छोड़ दिया और इसे नो बॉल देने के लिए प्रोटेस्ट करने लगा। इसके बाद गेंदबाजों के लिए ओवरहैंड गेंदबाजी का नया नियम बनाया गया. हालांकि इस नियम ने नाटकीय रूप से क्रिकेट के खेल को बदल दिया. अब बल्लेबाजों के लिए गेंद की मूवमेंट को जज करना मुश्किल हो गया. उसके बाद से क्रिकेट में कई तरह के बदलाव आए और तकनीक का इस्तेमाल बढ़ता गया. आइए, जानते हैं आज के समय में इस जेंटलमैन गेम में इस्तेमाल की जाने वाली कुछ खास तकनीकों के बारे में -
स्निकोमीटर
क्रिकेट स्टेडियम में दर्शकों के शोर के बीच बैट और बॉल के हल्के एज को सुनना फील्ड एंपायर के लिए भी कई बार मुश्किल भरा होता है. इसलिए आजकल थर्ड एंपायर स्निकोमीटर का इस्तेमाल करने लगे हैं. इस टेक्नोलॉजी के जरिए यह जानना आसान हो जाता है कि बॉल का बैट के किसी हिस्से से संपर्क हुआ था या नहीं.. इस तकनीक में अलग-अलग साउंड वेव के जरिए यह पता लगाया जाता है कि बॉल बैट से लगी थी. या पैड से या फिर कहीं और. स्निकोमीटर में बेहद संवेदनशील माइक्रोफोन का इस्तेमाल होता है, जो पिच के दोनों ओर के स्टंप में लगा होता है. यह ऑसिलस्कोप से कनेक्ट होता है, जो साउंड वेव्स को मापता है. ऑसिलस्कोप कैमरे की मदद से माइक्रोफोन द्वारा कैप्चर साउंड को दिखाता है. स्निकोमीटर का आविष्कार ब्रिटिश कंप्यूटर साइंटिस्ट एलन प्लासकेट ने किया था. इसका इस्तेमाल क्रिकेट में पिछली शताब्दी में 90 के दशक के मध्य से शुरू हुआ था.
हॉट स्पॉट
जब लगा कि स्निकोमीटर बहुत ज्यादा सटीक नहीं है, तब क्रिकेट में हॉट स्पॉट का इस्तेमाल शुरू हुआ. यह इंफ्रारेड इमेजिंग सिस्टम है. इससे यह पता लगाना आसान हो जाता है कि बॉल खिलाड़ी के पास पहुंचने से पहले कहां लगी थी. स्निकोमीटर जिस तरह साउंड वेव पर निर्भर है, उसी तरह हॉट स्पॉट हीट सिग्नेचर पर डिपेंड करता है. इस टेक्नोलॉजी के लिए दो कैमरों का इस्तेमाल होता है, जिसे ग्राउंड के दोनों किनारों पर लगाया जाता है. यह बॉल के बैट, पैड, ग्लव्स या फिर किसी अन्य जगह पर लगने के बाद उत्पन्न हीट फ्रिक्शन को मेजर करता है. इसमें सॉफ्टवेयर निगेटिव इमेज जेनरेट करता है. ऑस्ट्रेलियन कंपनी बीबीजी स्पोट्र्स ने यह तकनीक ईजाद की है, जिसके फाउंडर वॉरेन ब्रेनन हैं. पहली बार इस तकनीक का इस्तेमाल 23 नवंबर, 2006 को एशेज सीरीज के दौरान हुआ था.
हॉक आइ
हॉक आइ का इस्तेमाल क्रिकेट के अलावा, टेनिस, फुटबॉल जैसे अन्य गेम में भी किया जाता है. हॉक आइ 5 मिलीमीटर की सीमा के भीतर भी सही आकलन करता है. यह तकनीक बॉल की गति को उसी प्रकार मापती है, जैसे वह फेंकी जाती है. इस तकनीक में छह कैमरों के माध्यम से आंकड़े प्राप्त किए जाते हैं, जो फील्ड में अलग-अलग जगह लगाए जाते हैं. कैमरे बॉल को अलग-अलग एंगल से ट्रैक करते हैं. सभी छह कैमरों के वीडियो को मिलाकर यह 3डी इमेज क्रिएट करता है, जिससे गेंद के सही इंपैक्ट और स्पीड का पता चलता है. यह तकनीक एलबीडब्ल्यू (लेग बिफोर विकेट) के दौरान निर्णय लेने में तीसरे अंपायर की मदद करती है. इससे यह पता चल जाता है कि बॉल कहां पिच हुई थी, उसका इंपैक्ट क्या था. क्या गेंद जब बल्लेबाज के पैड से टकराई थी? क्या वह वास्तव में स्टंप की लाइन में थी. इसके माध्यम से गेंद की दिशा और स्विंग को एक साथ मापा जाता है. यूडीआरएस (द अंपायर डिसीजन रिव्यू सिस्टम) के तहत आजकल अंपायर निर्णय देने के लिए स्निको, हॉट स्पॉट और हॉक आइ तकनीक का इस्तेमाल करते हैं. इस तकनीक को ब्रिटेन के डॉ. पॉल हॉकिन्स ने डेवलप किया था. इसका इस्तेमाल सबसे पहले वर्ष 2001 में किया गया.
जिंग विकेट सिस्टम
इसमें स्टंप के ऊपर बेल्स में एलईडी लाइट्स लगी होती हैं. जैसे ही बॉल विकेट से लगती है, एलईडी लाइट फ्लैश करने लगती है .इस तकनीक से रन आउट या फिर स्टंप आउट की स्थिति में अंपायर के लिए निर्णय लेना बेहद आसान हो जाता है. स्टंप में माइक्रोप्रोसेसर और लो वोल्टेज बैटरी लगी होती है. साथ ही, इसमें इनबिल्ट सेंसर भी होता है, जो बॉल के विकेट पर लगते ही तेजी से (1/1000 सेकंड) डिटेक्ट कर लेता है. इस सिस्टम को क्रिएट करने का श्रेय ऑस्ट्रेलियन मैकेनिकल इंडस्ट्रियल डिजाइनर ब्रोन्टे इकरमैन को जाता है.इसे जिंग इंटरनेशनल द्वारा मैन्युफैक्चर किया जाता है.
स्पीड गन
स्पीड गन के माध्यम से गेंद की गति को मापा जाता है. यह डॉप्लर प्रभाव के सिद्धांत पर कार्य करता है. इसमें एक रिसीवर और ट्रांसमीटर लगा होता है. इसे साइटस्क्रीन के पास एक ऊंचे खंभे पर लगाया जाता है, जहां से स्पीड गन पिच की दिशा में एक सूक्ष्म तरंग भेजता है और पिच पर किसी भी वस्तु की गतिविधि की सूचना प्राप्त कर लेता है. स्पीड गन के माध्यम से प्राप्त सूचना को इमेज प्रोसेसिंग सॉफ्टवेयर में डाला जाता है, जो पिच पर अन्य वस्तुओं के बीच गेंद की गति को बताता है. क्रिकेट में इसका प्रयोग सबसे पहले 1999 में किया गया था. इस तकनीक का आविष्कार जॉन एल. बाकर और बेन मिडलॉक ने किया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एटॉमिक सिग्नल कंपनी में कार्य करते हुए उन्होंने इसे तैयार किया था.
स्पाइडर कैम
स्पाइडर कैम में कैमरा केवलर केबल से टंगा होता है और उसमें मोटर लगी होती है. ब्रॉडकास्टर कंपनी के हिसाब से कैमरे को जूम, फोकस या टिल्ट किया जाता है. इसका इस्तेमाल सबसे पहले 2010 के आइपीएल के दौरान किया गया था.
स्टंप कैमरा
यह कैमरा स्टंप के अंदर लगाया जाता है. जब प्लेयर बोल्ड हो जाता है, तो एक्शन रिप्ले दिखाने में यह काम आता है.
सुपर स्लो मोशन
वर्ष 2005 से रिप्ले के दौरान स्लो मोशन के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. सुपर स्लो मोशन कैमरा 500 फ्रेम्स प्रति सेकंड इमेज को रिकॉर्ड करता है, जबकि सामान्य कैमरा 24 फ्रेम्स प्रति सेकंड ही रिकॉर्ड कर पाता है.
बॉल स्पिन आरपीएम
बॉल के रोटेशन की स्पीड को दिखाने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. इसका प्रयोग स्पिनर द्वारा बॉलिंग किए जाने के दौरान किया जाता है. यह दिखाता है कि बॉल पिच पर कितनी स्पिन हो रही है. बॉल को हाथ से छोड़ने के बाद बॉल कितनी स्पिन करती है, यह भी देखा जा सकता है.
पिच विजन
बैटिंग के दौरान यह किसी खिलाड़ी के परफॉर्मेंस का फीडबैक दर्शाता है. बैट्समैन बैटिंग के दौरान ऑन या ऑफ साइड से कितना रन बटोरते हैं या फिर किस एरिया में ज्यादा खेलते हैं, उसे पिच विजन टेक्नोलॉजी के जरिए देखा जा सकता है.
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