चाहे केन्द्र की सरकार हो या फिर चाहे किसी भी प्रदेश की सरकार ही क्यों न अपने नागरिकों को हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराने का वादा किया जाता है तथा इस वादे को निभाने के लिये भी लाखों.करोडों का खर्च होता है। लेकिन यह कहने में बिल्कुल भी गुरेज नहीं है कि जिन सुविधाओं की दरकार लोगों को होती हैए वह व्यवस्थाओं के फेर में मिलती नहीं है और इस कारण लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।
ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैए जिसमें मानवीयता की हत्या तक हो गईए लेकिन इसके बाद भी व्यवस्थाएं सुधारने की दिशा में जिम्मेदारों द्वारा कदम नहीं उठाये जाते है। हाल ही में कुछ ऐसे उदाहरण सामने आये हैए जिन्होंने बेहतर व्यवस्थाएं या सुविधाएं मुहैया कराने के दावे की पोल खोलकर रख दी है। ये उदाहरण सोचने पर मजबूर कर देते है कि क्या यही सब झेलने के लिये लोग बने हुये है या फिर जानबुझकर जिम्मेदार लोगो की सुनवाई नहीं करते है।
कंधो पर उठाई पत्नी की लाश
उड़ीसा के एक स्थान पर किसी व्यक्ति ने अपनी मृत पत्नी की लाश इसलिये कांधों पर उठा ली क्योंकि उसे संबंधित विभाग की ओर से बिल्कुल भी मदद नहीं मिल सकी थी। इसके चलते वह व्यक्ति मजबूरी में वह सब कर गयाए जिसे हम कभी स्वीकार नहीं कर सकते। साथ में उसकी मासूम बेटी भी थी जिसके आंसू रास्ते में टपकते रहे। बावजूद इसके किसी ने मदद करना उचित नहीं समझी। दूसरा उदाहरण हाल ही में भिंड के क्षेत्र में आया है। यहां के एक गांव में प्रसूता को अस्पताल ले जाने के लिये एम्बुलेंस मंगवाई गई लेकिन अस्पताल में किसी ने फोन ही नहीं उठाया और इस कारण अस्पताल ले जाते समय आॅटो में ही प्रसूता ने बच्चे को जन्म दे दिया। ऐसे कई उदाहरण सामने आये है जिसने ए जिसने कथनी और करनी में अंतर को स्पष्ट कर दिया है।
सोती रही हमारी सरकार -
उड़ीसा के जिस व्यक्ति ने अपनी पत्नी का शव कांधों पर उठाया और उसका अंतिम संस्कार किया था, उसका दर्द बहरीन के प्रधानमंत्री ने समझा है और यही कारण रहा कि वहां के प्रधानमंत्री ने उसे अपनी ओर से आर्थिक मदद दी है। लेकिन हमारी सरकार की नींद ही नहीं खुली। न जिम्मेदारों को तलब किया और न ही मदद देने के लिये प्रयास ही किये गये। पता नहीं यह जानकारी सरकार के पास पहुंची भी या नहीं। जिम्मेदारों को भले ही यह सब सामान्य लगे लेकिन जिन्होंने भी अपनी खुली आंखों से इन मंजरों को देखा है उसका हृदय निश्चित ही रो पड़ा होगा और इस बात पर मंथन अवश्य ही किया होगा कि क्या यही भारत की तस्वीर है।
लाखों करोडो सुविधाओं के नाम पर पानी की तरह बहाये जाते है तथा लोग भी विश्वास करते है कि सरकार या प्रशासन हमारा है बावजूद इसके जब आवश्यकता पड़ती है तो सब दूर के किनारे हो जाते है। संकट के समय मदद या सुविधाएं मिले तो सरकार काम केए अन्यथा कुछ भी ढिंडोरा पिटते रहोए कौन सुनने वाला है आपकीए कि आपने इतनी जननी एक्सप्रेस चला दी है या फिर इतनी.इतनी सुविधाएं अस्पताल में दी जा रही है या फिर इतने कर्मचारियों की फौज पाल रखी है लोगों की सेवा के लिये।
खैर जो हुआ सो हुआए या बीती ताहि बिसार देए आगे की सूध ले वाली बात को चरितार्थ किया जाकर नये सिरे से मंथन किया जा सकता है कि आखिर लोगों को किस तरह का कष्ट है या फिर जितनी धन राशि खर्च की जा रही है अथवा की गई हैए उन योजनाओं का लाभ लोगों को मिल भी रहा है या नहीं। आवश्यकता है व्यवस्थाओं में परिवर्तन लाने कीए जरूरत है मोटी चमड़ी वाले अधिकारियों और कर्मचारियों की खाल खींचने की और दरकार है लोगों के दुःख को अंगीकार करने की।