सुरीली, मधुर, कानों को प्रिय लगने वाली. मन को शांत करने वाली प्रिय बांसुरी. प्रेम और अध्यात्म को महसूस कराती और इसकी धुनों में पिरोये नजर आते है, मशहुर बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया. बासुरी जब हरिप्रसाद चौरसिया के होंठों का स्पर्श पाती है तो मानो जैसे धन्य हो जाती है.
बांसुरी की चाह ने उनके लिए बॉलिवुड तक की राह बना दी वो कहते भी है ना जहां चाह वहां राह. पद्म विभूषण पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का जन्म एक जुलाई 1938 को इलाहाबाद में हुआ. उन्होंने 15 साल की उम्र में पंडित राजाराम से गायन कला सीखनी शुरु की थी.
उन्होंने आठ साल तक वाराणसी के पंडित भोलानाथ प्रसन्ना के सानिध्य में बांसुरी वादन सीखा. वे 1957 में ऑल इंडिया रेडियो, कटक से संगीतकार और कलाकार के रुप में जुड़ गये. बाद में उन्होंने गुरू मां अन्नपूर्णा देवी से शिक्षा ग्रहण करने का अवसर भी मिला. यहीं से शुरू हुआ देश-विदेश के मंचों पर छा जाने का सफर.
शास्त्रीय संगीत के अलावा उन्होंने, शिव हरि नामक एक समूह बनाकर शिवकुमार शर्मा के साथ भारतीय फिल्मों के लिए एक संगीत निर्देशक के रुप में अपनी पहचान बनाई. ये उनका बांसुरी के प्रति पूर्ण समपर्ण ही है कि आज भी वृंदावन गुरुकुल में युवा, बांसुरी के सुरों का ज्ञान उनके सानिध्य में सीख पा रहे हैं. आज भी उनके होठों के मीठे-मीठे बोल बांसुरी से सुरीले गीत सुना रहे है.
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