गुजरात के चुनाव परिणाम देश की राजनीति में क्या गुल खिलाएंगे?

गुजरात के चुनाव परिणाम देश की राजनीति में क्या गुल खिलाएंगे?
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गुजरात विधानसभा चुनाव में मतदान की तारीख नजदीक आते ही सियासत गरमा गई है। चक्रवात और समुद्री तूफान की आहट के बीच भूचाल राजनीति में भी कम नहीं मचा है। चाहे फिर वह कांग्रेस हो या भाजपा एक-दूसरे को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ते। रोडशो, रैलियां, कमरा बंद बैठक, सोशल मीडिया पर आरोप प्रत्यारोप के साथ न्यूज चैनलों पर बहस ने गुलाबी ठंड की आहट के बीच सियासी तापमान बढ़ा दिया है। निजी एजेंसी के सर्वे हों या फिर प्रचार के दूसरे तरीके इस दौरान जीवंत और ज्वलंत मुद्दे चर्चा का विषय बने। गुजरात मॉडल जिसकी धूम पिछले 2014 लोकसभा चुनाव में पूरे देश में सुनाई दी थी, उसका जिक्र सामने आते ही नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने आ जाता है।

इसका सीधा मतलब विकास सिर्फ विकास रहा उसमें समय के साथ जरूरी बदलाव की कवायद मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने के साथ नरेंद्र मोदी ने न्यू इंडिया से जोड़कर की। इस बार गुजरात चुनाव में इसी विकास के नाम पर भाजपा ने चुनाव प्रचार का शंखनाद किया था और कांग्रेस ने इस पर ब्रेक लगाते हुए ‘विकास पागल हो गया’ के जुमले को खूब हवा दी। कांग्रेस ने राहुल गांधी की ताजपोशी के साथ उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने की जो स्क्रिप्ट बनाई उसमें सारे विकल्प खोल दिए गए चाहे फिर वह विकास पर सवाल खड़े करने के साथ मोदी और भाजपा विरोधियों खासतौर से अलग-अलग जाति-समुदाय की आवाज उठाने वाले 3 लड़कों का समर्थन हासिल करना हो ।

इसी कड़ी में राहुल गांधी की हिंदू और हिंदुत्व को लेकर बदलती सोच के साथ बात जनेऊ और मंदिर-मंदिर तक पहुंच जाने की ही क्यों न हो। समय के साथ चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस और भाजपा की सोच बदलती गई। ऐसे में गुजरात मॉडल चाहे फिर वह बीजेपी या कांग्रेस का ही क्यों ना हो, चुनाव में पीछे छूटता नजर आ रहा है और चर्चा एक बार फिर उस राम मंदिर की शुरू हो गई जिसकी न्यायालय में सुनवाई की तारीख मुकर्रर कर दी गई। फिर भी सवाल खड़ा होना लाजमी है क्या कांग्रेस राहुल गांधी की अगुवाई में सॉफ्ट हिंदुत्व के साथ आगे बढ़ेगी यदि यह मिशन 2019 लोकसभा चुनाव की रणनीति की पहली कड़ी है तो फिर राम मंदिर को लेकर बन रहे माहौल में आखिर कांग्रेस कब तक सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा लेगी। सवाल यह भी कि यदि यह कांग्रेस का ‘गुजरात मॉडल’ है तो आने वाले समय में राज्यों के चुनाव के साथ देश की राजनीति में कांग्रेस किस हद तक जाने को तैयार है।

कांग्रेस के इस नए गुजरात मॉडल की एंट्री राहुल गांधी की नई भूमिका यानी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के साथ सामने आई जिसमें संदेश सिर्फ विरोधियों को लामबंद करने का ही नहीं छुपा बल्कि भाजपा शासित राज्यों के विकास के मॉडल की पोल खोलना भी शामिल रहा। कांग्रेस ने घोषणा पत्र जारी कर किसानों का कर्ज 10 दिन के अंदर माफ कर देने के साथ कई लुभावने वादे किए। मकसद महिला, युवा, किसान का भरोसा जीतना था। गुजरात में कांग्रेस ने किसी चेहरे को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट उस वक्त नहीं किया जब यह प्रयोग पंजाब में सफल रहा और खुद राहुल गांधी सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि यूपीए का स्वीकार्य चेहरा बनाए जाने को लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा नजर आ रहे हैं। चुनाव प्रचार और सियासी जमावट को कांग्रेस के गुजरात मॉडल से जोड़कर देखा जा सकता है। कांग्रेस ने इस गुजरात मॉडल को प्रचार के मोर्चे पर राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर जाना और नौबत जनेऊ तक पहुंच जाने को एक नई दिशा दे दी है। महासचिव से उपाध्यक्ष और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष के लंबे सफर में लोकसभा के कई चुनाव जीतने के बावजूद हिंदू धर्म को लेकर राहुल इससे पहले इतने सक्रिय कभी नजर नहीं आए। इसलिए कांग्रेस का यह अभिनव प्रयोग जिसे गुजरात मॉडल कहा जा सकता बदलते सियासी परिदृश्य में राहुल के सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर बढ़ते कदम कांग्रेस की एक नई दिशा को भी इंगित करता है।

गुजरात चुनाव के पहले चरण के मतदान के नजदीक जब प्रचार पहुंच चुका है, तब मोदी और राहुल के बीच सियासी जंग गौर करने लायक है। गुजरात में सल्तनत बचाने का दबाव बीजेपी से ज्यादा मोदी पर है तो कांग्रेस ने नई भूमिका में राहुल गांधी को दांव पर लगाकर मिशन 2019 की रणनीति गुजरात से नए प्रयोग के साथ बनाई है। बीजेपी के गुजरात मॉडल का मतलब वाइब्रेंट गुजरात जिसने विकास के मुद्दे पर देश को एक नई दिशा दिखाई तो दूसरे राज्यों पर वह भारी साबित हुआ। मोदी के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक के सफर में गुजरात मॉडल बीजेपी के विकास के मॉडल का पर्याय बन चुका है। ऐसे में हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश की तिगड़ी और उनके समर्थकों ने ‘जब विकास पागल हो गया’ को एक नई ऊंचाई दी तो कांग्रेस ने भी खोई जमीन पाने के लिए सारे विकल्प खोल दिए। जिसका एकमात्र मकसद भाजपा और मोदी विरोधियों को एकजुट कर उनका समर्थन कांग्रेस के लिए प्राप्त करना है। मतदान से पहले प्रचार के दौरान बीजेपी के विरोध में बनी यह तस्वीर और माहौल काफी हद तक भीड़ जुटाने और जनता को रिझाने में सफल हुई। 

गुजरात चुनाव की तारीख से पहले ही इस प्रचार में अपनी छाप छोड़ रही है चाहे फिर वह खुद राहुल गांधी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना हो या फिर राम मंदिर को लेकर न्यायालय से लेकर सड़क पर चर्चा। यहीं पर सवाल खड़ा होता है कि सोनिया गांधी के हाथ से कांग्रेस की कमान निकलकर जब राहुल गांधी के पास पहुंच रही है तो क्या एंटोनी कमेटी की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने हिंदू और हिंदुत्व दोनों के प्रति अपना झुकाव बढ़ा दिया जिसे सॉफ्ट हिंदुत्व का नाम दिया जा रहा है। सवाल फिर वही क्या कांग्रेस पहले ही यह भांप चुकी थी कि गुजरात चुनाव नजदीक आते-आते राम मंदिर का राग जब भाजपा नए सिरे से अलापेगी तब संघ की सबसे बड़ी प्रयोगशाला माने जाने वाले गुजरात चुनाव में यदि खड़े नजर आना है तो भाजपा को उसकी पहचान से जुड़े मुद्दों पर ही घेरा जा सकता है। जिस तरह गुजरात मॉडल के विकास की पोल खोलने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी तो क्या राम मंदिर के मुद्दे पर अमित शाह ने जिस तरह कपिल सिब्बल को सामने रखकर कांग्रेस की घेराबंदी की है, आखिर ऐसे मोड़ पर राहुल की कांग्रेस के सामने विकल्प क्या होंगे।

कांग्रेस ने भोपाल गैस कांड की पैरवी में शामिल केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली की पुरानी भूमिका की याद दिलाकर कपिल सिब्बल का जरूर बचाव किया है। लेकिन इस मुद्दे पर कांग्रेस पर दबाव बढ़ता जा रहा है कि वह राम मंदिर को लेकर अपनी सोच स्पष्ट करे। यह मांग बीजेपी ने भी उठाई है। कुल मिलाकर बीजेपी के गुजरात मॉडल और राहुल गांधी के नए और पहले प्रयोग गुजरात मॉडल दोनों के बीच अब चर्चा राम मंदिर की जोर पकड़ने लगी है। सरसंघचालक मोहन भागवत से लेकर भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी पहले ही मंदिर पर अपना रुख स्पष्ट कर भाजपा पर दबाव बना चुके हैं तो गैर राजनीतिक मोर्चे पर श्री श्री रविशंकर की सक्रियता भी किसी से छुपी नहीं है। जिस पर पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने भी सवाल खड़े किए थे। देखना दिलचस्प होगा कि विकास के जो मुद्दे पीछे छूट रहे हैं तब चुनाव प्रचार की उल्टी गिनती शुरू होने के बीच गुजरात के चुनाव परिणाम देश की राजनीति में क्या गुल खिलाएंगे, खासतौर से जिन राज्यों में गुजरात के बाद विधानसभा के चुनाव होना हैं। इसमें छत्तीसगढ़, राजस्थान के साथ मध्यप्रदेश भी शामिल है।

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