सनातन धर्म में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति शिव को जगत के पिता के रूप में मानता है, शिव का ना कोई आरम्भ है और ना ही अंत. शिव निष्क्रिय भी हैं, सक्रिय भी, निराकार भी हैं, साकार भी. जगत की रक्षा के लिए कालकूट का पान करने वाले नीलकंठ हमेशा अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते है . अपना सर्वस्व त्याग कर कैलाश पर्वत पर बैठने वाले इस महायोगी का चरित्र ही ऐसा है कि, मनुष्य क्या, देवता, ऋषि, मुनि भी उनकी करुणा का गुणगान करते रहते हैं.
शिव वैसे तो हमेशा ध्यान में लीन रहते हैं, लेकिन उनके आभूषण, उनकी वेशभूषा, उनके आयुध ही सम्पूर्ण विश्व को जीवन का मर्म समझा देते हैं. भगवान शिव को जिस रूप में हम जानते हैं, उसमें उनकी तीसरी आँख भी है, ऐसा कहा जाता है कि, मनुष्य अपनी दोनों आँखों से सांसारिक वस्तुओं को देखने का काम करता है. वहीं भगवान शिव की तीसरी आँख सांसारिक वस्तुओं से हटकर संसार का बोध कराती है. योग के उत्पत्तिकर्ता शिव के गले में सर्प कुण्डलिनी शक्ति का बोध कराता है, कुंडलिनी के स्वाभाव की वजह से ही उसके अस्तित्व का पता नहीं चल पाता है. व्यक्ति के गले के गड्ढे में विशुद्ध चक्र होता है जो बाहर के हानिकारक प्रभावों से बचाता है. शिव के साथ डमरू, जीवन के संगीत और शिव की कलाप्रियता को दर्शाता है, क्योंकि कला निष्कपट होती है.
भगवान शिव का त्रिशूल मनुष्य के शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुष्मना को दर्शाता है, प्रतीक्षा, ग्रहणशीलता का मूल तत्व माना गया है और नंदी को इसका प्रतिक माना गया है. "सत्य को प्राप्त करना और सत्य को प्राप्त होना" दो जुदा बाते हैं और नंदी सत्य को प्राप्त हो चुके हैं. कमर पर लिपटा व्याघ्रचर्म शिव के निर्मोह को दर्शाता है, जिसके अनुसार मनुष्य को किसी भी वस्तु के प्रति मोह नहीं होना चाहिए. सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात है कि, शिव को एक आदर्श पति के रूप में जाना जाता है, जिसको इस सन्दर्भ से जाना जा सकता है, जब शिव ने माँ पार्वती को अपने शरीर में ही आधा स्थान दे दिया था.
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