आओ झुककर सलाम करें उनको, जिनके हिस्से में ये मुकाम आता है, खुशनसीब है वो खून जो देश के काम आता है।
जी हां, 3 मार्च 1931 का वह दिन संभवतः ही कोई भारतीय भूलेगा। यह वह दिन था जब शहीद ए आजम भगत सिंह को ब्रिटिश राजसत्ता द्वारा फांसी की सजा दे दी गई थी। भगत सिंह के साथ देश की स्वाधीनता के लिए फांसी पर चढ़ने वाले वीरों में शिवरामहरी राजगुरू और अमर बलिदानी सुखदेव भी शामिल थे। भगत सिंह की ही तरह सुखदेव और राजगुरू दोनों ने बचपन से ही ब्रिटिश सत्ता के क्रूर नियमों को देखा था और उनमें ब्रिटिश राज व्यवस्था को लेकर असंतोष था। सुखदेव में देशभक्ति की भावना प्रारंभ से ही भरी थी।
जब वे महाविद्यालय स्तर पर अध्ययन करने के लिए लाहौर नेशनल काॅलेज पहुंचे तो यहां उनका परिचय भगत सिंह से हुआ बस यहीं से दोनों मित्र बन गए। सुखदेव का जन्म भी पंजाब की जमीन पर हुआ था। उन्होंने 15 मई 1907 को गोपरा, लुधियान में जन्म लिया। उनके पिता हालांकि कारोबारी थे। उनका नाम रामलाल थापर था। वे अपने कारोबार के सिलसिले में लायलपुर में रहा करते थे। उनकी माता का नाम रल्ला देवी था।
उनकी माता बेहद धार्मिक स्वभाव वाली महिला थीं। जब सुखदेव 3 वर्ष के हुए तभी उनके सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसे में उनका पालन पौषण उनके ताऊ लाल अचिन्तन राम ने किया। सुखदेव वर्ष 1919 में हुई जलियावालाबाग हत्याकांड की घटना से बेहद प्रभावित हुए। उनके दिल में ब्रिटिश अधिकारियों को लेकर असंतोष आ गया था।
सुखदेव को यह भी बेहद अटपटा लगता था कि यदि कहीं से भी ब्रिटिश अधिकारी गुज़रते तो भारतीय विद्यार्थी एक ओर खड़े होकर उन्हें सैयूट करते। ऐसा न करने पर अंग्रेज अधिकारी बच्चों को पीटा करते थे। एक बार उन्हों अंग्रेजों को सैल्यूट करने से इन्कार कर दिया तो उन्हें पीट दिया गया।
सुखदेव ने अपनी युवा अवस्था में वर्ष 1926 में लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया। जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया तो सुखदेव, भगत सिंह सहित कई नौजवानों को बेहद दुख हुआ। इस आंदोलन ने अंग्रेजी राज सत्ता की जड़ें कमजोर कर दी थीं। मगर चोरी चैरा की घटना के बाद इसे वापस ले लिया गया था। इसके बाद उन्होंने नौजवान भारत सभा नामक संगठन बनाया।
इसमें वे युवाओं को भारतीय संस्कृति, भारतीय जीवन शैली शारीरिक व्यायाम आदि का प्रशिक्षण देते और इससे संबंधित बातें की जाती थीं। कुछ समय तक चलने के बाद इस संगठन को बंद कर दिया गया मगर बाद में फिर 198 में यह फिर से गठित किया गया। इस बार इसका नाम नौजवान भारत सभा रखा गया था। वर्ष 17 नवंबर 1928 में लाला लाजपतराय देवलोक को चले गए थे। साइमन कमीशन के अहिंसक विरोध के दौरान पुलिस ने लोगों पर लाठियां भांजी इस दौरान लालालाजपतराय गंभीर रूप से घायल हो गए थे और अंततः उनका निधन हो गया।
इस क्षति का असर क्रांतिकारियों पर हुआ। क्रांतिकारियों में ब्रिटिश राजव्यवस्था को उखाड़फैंकने की इच्छा जागी। युवा क्रांतिकारी आक्रोशित हो उठे। ऐसे में सुखदेव और भगत सिंह ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेज अधिकारी स्कार्ट को मारने की रणनीति बनाई मगर इसके स्थान पर सांडर्स मारा गया।
क्रांतिकारियों ने इसे लालालाजपतराय की हत्या का बदला करार दिया। बाद में एक बम निर्माण करने की फैक्ट्री में ब्रिटिश अधिकारियों के छापे के दौरान सुखदेव पकड़े गए। यह दिन 15 अप्रैल 1929 का था। पकड़े जाने के बाद सुखदेव ने जेल से महात्मा गांधी को पत्र लिखा वं महात्मा गांधी की कुछ नीतियों से सहमत नहीं थे।
उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेने पर विरोध भी किया था। दूसरी ओर भगत सिंह को भी केंद्रीय असेंबली में बम फेंककर धमाका करने के मामले में पकड़ लिया गया था। अब दोनों ही साथी जेल में थे। जेल में भी क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश राज व्यवस्था की दमनकारी नीतियों का विरोध किया और अपनी मांग न मानी जाने को लेकर भूखहड़ताल की। आखिरकार जब ब्रिटिश अधिकारियों ने यह अनुभव किया कि भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव और अन्य क्रांतिकारियों का प्रभाव बढ़ रहा है तो न्यायालय के माध्मय से इन्हें फांसी की सजा सुना दी गई लेकिन ब्रिटिश अफसर फांसी की सजा से आशंकित थे।
तीनों क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दिए जाने भारतीय भड़क गए थे और जगह जगह प्रदर्शन हो रहे थे। ऐसे में ब्रिटिश अधिकारियों ने तय समय से पूर्व 23 मार्च 1931 को ही लाहौर सेंट्रल जेल में तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी। लोगों को पता ही नहीं चल सका और जब पता चला तो लोगों का आक्रोश फूट गया। ये शहीद तो अपना जीवन भारत माता के लिए बलिवेदी पर चढ़ा गए लेकिन इनके बलिदास से भारतीय स्वाधीनता का आंदोलन मजबूत हो गया। इन तीनों के बलिदान के बाद देशभर में लोग जागृत हो उठे और ब्रिटिश राजव्यवस्था को लेकर परिवर्तनकारी लहर उठने लगी। जिसने बदलाव की आंधी का रूप लिया।
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