सिक्ख धर्म 10 वें गुरु, गोविन्द सिंह मानवता के पक्षधर थे

सिक्ख धर्म 10 वें गुरु, गोविन्द सिंह मानवता के पक्षधर थे
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गुरु गोविंद सिंह सिक्खों  के दसवें व अंतिम गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह जी का मूल नाम गोविंद राय था। गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुगलों का शासन था। इसी दौरान गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गुजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को बाला प्रीतम कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर गोविंद कहते थे। बार-बार गोविंद कहने से बाला प्रीतम का नाम गोविंद राय पड़ गया। 

"सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिडिय़ों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ।"गुरु गोबिंदसिंह मूलत:धर्मगुरु थे। अस्त्र-शस्त्र या युद्ध से उनका कोई वास्ता नहीं था, लेकिन औरंगजेब को लिखे गए अपने अजफ रनामा में उन्होंने इसे स्पष्ट किया था। "श्चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।"अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की शान के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इस अजफ रनामा (विजय की चिट्ठी) में उन्होंने औरंगजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार है। 

गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है कि "जब-जब होत अरिस्ट अपारा, तब-तब देह धरत अवतारा।" अर्थात जब-जब धर्म का ह्रास होकर अत्याचार, अन्याय, हिंसा और आतंक के कारण मानवता खतरे में होती है तबतब भगवान दुष्टों का नाश और धर्म की रक्षा करने के लिए इस भूतल पर अवतरित होते हैं। वे स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की बर्बर शक्तियों का नाश करने के लिए अवतरित हुए। वे क्रांतिकारी युगपुरुष थे। वे धर्म-प्रवर्तक और एक शूरवीर राष्ट्र नायक थे। वे सत्य, न्याय, सदाचार, निर्भीकता, दृढ़ता, त्याग एवं साहस की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने भारतीय अध्यात्म परंपरा में साहस का समावेश करके अपने धर्म, अपने देश, अपनी स्वतंत्रता और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी। 

बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को मीरी और पीरी दो तलवारें पहनाई थीं। पहली आध्यात्मिकता की प्रतीक थी, तो दूसरी सांसारिकता की। परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं। खालसा पंथ औरंगजेब सहित अन्य राजाओं के अत्याचार से तंग आकर गुरु गोबिंदसिंहजी ने सिखों को एकजुट करके एक नई धर्मशक्ति को जन्म दिया। 

उन्होंने सिख सैनिकों को सैनिक वेश में दीक्षित किया। 13 अप्रैल 1699 को वैशाखी वाले दिन गुरुजी ने केशगढ़ साहिब आनंदपुर में पंच पियारों द्वारा तैयार किया हुआ अमृत सबको पिलाकर खालसा को ऊर्जा दी। खालसा का मतलब है वह सिख जो गुरु से जुड़ा है। वह किसी का गुलाम नहीं है, वह पूर्ण स्वतंत्र हैं। पाँच ककार युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पाँच ककार अनिवार्य घोषित किए जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है।
(१) केश - जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे। 
(2) कंघा - केशों को साफ करने के लिए।
(3) कच्छा - स्फूर्ति के लिए।
(4) कड़ा - नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए।
(5) कृपाण - आत्मरक्षा के लिए।

 

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