भगवान सूर्य देव का जब स्मरण किया जाता है, तो उनकी छवी मानव मस्तिष्क में एक रथ पर बनती है। यह रथ घोड़ो से निर्मित है, जिस पर भगवान सूर्य निरंतर विराजमान रहते है। रविवार का दिन भगवान सूर्य को समर्पित है। भगवान सूर्य का, रथ पर विराजमान होकर घूमने से ही रात-दिन का यह चक्र निरंतर चलते रहता है। सूर्य के रथ की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक ही है। इसी के साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त मतलब दो घड़ी में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है।
इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है, जिसके बारह अरे ही बारह मास, छः नेम छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है। इस रथ का सारथ्यन अरुण नाम के सारथी करते हैं। इस तरह भगवान भुवन भास्कर नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बी परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तय करते हैं।
सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी से होते हुए दक्षिण की ओर यमपुरी से गुजर कर पश्चिम की ओर वरुणपुरी और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी तक, मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य की परिक्रमा पूरी होती है। इसी यात्रा के बाद में सभी जगह कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होती है। सूर्य जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।
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