एक मुस्लिम महिला नहीं मानना चाहती शरिया कानून..! SC ने केंद्र से पुछा- आपका क्या जवाब..?

एक मुस्लिम महिला नहीं मानना चाहती शरिया कानून..! SC ने केंद्र से पुछा- आपका क्या जवाब..?
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से एक बेहद संवेदनशील और अहम मुद्दे पर जवाब मांगा है, जो देश में समान नागरिक संहिता (UCC) और धर्म आधारित कानूनों पर बहस को एक बार फिर तेज कर सकता है। मामला एक मुस्लिम महिला से जुड़ा है, जिसने इस्लाम के शरीयत कानून को मानने से इनकार कर दिया है। सवाल यह है कि यदि कोई व्यक्ति, जो मुस्लिम परिवार में जन्मा है, लेकिन इस्लाम पर आस्था नहीं रखता, उसे शरीयत कानून मानने के लिए बाध्य किया जा सकता है या उसे देश के संविधान द्वारा प्रदत्त कानूनों का पालन करने की स्वतंत्रता होगी?

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस मामले में केंद्र को चार सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि यह मामला एक मुस्लिम महिला का है, जो अपनी पूरी संपत्ति अपनी बेटी को देना चाहती है। लेकिन शरीयत कानून के अनुसार, वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि इस कानून के तहत बेटी को केवल 50% संपत्ति का अधिकार मिलता है। महिला का कहना है कि वह अपने ऑटिस्टिक भाई की देखभाल भी सुनिश्चित करना चाहती है, लेकिन शरीयत कानून उसे इसमें सीमित कर देता है। 

मुख्य न्यायाधीश ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह मुद्दा केवल मुस्लिमों तक सीमित नहीं है, बल्कि सभी धर्मों पर लागू हो सकता है। यदि अदालत इस मामले में कोई आदेश देती है, तो वह सभी आस्थाओं के लिए समान रूप से लागू होगा। उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिलाया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत धर्म परिवर्तन करने पर भी संपत्ति अधिकार प्रभावित होते हैं। 

इस मामले में सवाल सिर्फ एक मुस्लिम महिला के अधिकारों तक सीमित नहीं है। यह सवाल है कि क्या एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में किसी व्यक्ति को किसी धर्म के कानून का पालन करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, खासकर तब जब वह उस धर्म में आस्था नहीं रखता। संविधान स्पष्ट रूप से सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसी व्यवस्थाओं के कारण इस तरह की दुविधाएं उत्पन्न हो रही हैं।

आज़ादी के बाद से ही मुसलमानों को उनके धार्मिक कानूनों का पालन करने की छूट दी गई है। यह छूट वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा रही है, जिसके चलते संविधान द्वारा निर्धारित समान नागरिक संहिता का सपना आज भी अधूरा है। यदि यही मामला किसी हिंदू, सिख, या अन्य धर्म के व्यक्ति का होता, तो अदालत स्पष्ट रूप से संविधान का पालन करने का आदेश देती। लेकिन मुसलमानों को उनके पर्सनल लॉ के विशेषाधिकार ने इस मामले को जटिल बना दिया है।

अदालत से इस मामले में एक ठोस और न्यायपूर्ण समाधान की उम्मीद है। हालांकि, यह तभी संभव है जब अदालतें सभी धर्मों के मामलों को एक समान दृष्टिकोण से देखें। यह समय है कि देश संविधान को सर्वोपरि मानते हुए एक समान नागरिक संहिता की ओर बढ़े, ताकि इस प्रकार की दुविधाएं हमेशा के लिए समाप्त हो सकें। आने वाले समय में, इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश में संवैधानिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की दिशा में एक अहम कदम साबित हो सकता है।

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