नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए अहम टिप्पणी की है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि एक आरोपित को चुप रहने का पूरा अधिकार होता है और जाँचकर्ता उस पर दबाव नहीं डाल सकते कि वो बोले या फिर अपने अपराध को स्वीकार करे। सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार (13 जुलाई) को एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि संविधान प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार देता है कि वो खुद को अपराधी साबित किए जाने का विरोध करे। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने इस मामले की सुनवाई करते हुए ये फैसला सुनाया है।
दोनों न्यायमूर्तियों ने कहा है कि जाँच में सहयोग करने का ये मतलब नहीं होता है कि अपराध को कबूल कर लेना। साथ ही सवाल दागा कि भला आरोपित चुप क्यों नहीं रह सकता? उन्होंने कहा कि जाँच एजेंसियाँ केवल इसीलिए किसी आरोपित के खिलाफ मामले नहीं चला सकती, क्योंकि वो जाँच के दौरान चुप रहता है। जजों ने पुछा कि इस बर्ताव को असहयोग किस तरह कहा जा सकता है? ये अपराधी मामला उत्तर प्रदेश का है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई।
इस दौरान शीर्ष अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 20(3) का भी जिक्र किया। बता दें कि इस अनुच्छेद के तहत एक आरोपित को अधिकार मिलता है कि यदि वो चाहे तो खुद पर चल रहे आपराधिक मामले में खुद गवाह नहीं बन सकता और पूरी जाँच के दौरान चुप्पी साधे रख सकता है और बचाव में भी बोले बिना भी रह सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे मूलभूत कानून करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये अभियोजन पक्ष का दायित्व है कि वो संदेह के आधार से आगे निकल कर आरोपित को दोषी साबित करे।
इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने दोहराया है कि दोष साबित होने तक आरोपित बेकसूर होता है। ये मामले दहेज़ का है। पति-पत्नी दोनों डॉक्टर हैं। पत्नी ने अपने पति पर दहेज़ उत्पीड़न का केस दर्ज कराया था। साथ ही इल्जाम लगाया था कि उसके साथ मारपीट की गई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फरवरी में गिरफ़्तारी से पहले दाखिल की गई जमानत याचिका ख़ारिज कर दी थी। हालाँकि, शीर्ष अदालत ने मई में उसे गिरफ़्तारी से राहत प्रदान की। महिला के वकील ने आरोप लगाते हुए कहा था कि आरोपित जाँच में सहयोग नहीं कर रहा है।
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