साइबेरिया में एक जगह है जिसे 'नर्क का द्वार' कहा जाता है। यह नाम सुनने में भले ही डरावना लगे, लेकिन यह असल में एक विशाल गड्ढा है जिसे बातागाइका क्रेटर कहा जाता है। यह गड्ढा साइबेरिया के ठंडे इलाकों में स्थित है और इसके लगातार बढ़ने से वैज्ञानिकों को चिंता हो रही है।
कैसे बना 'नर्क का द्वार'?: बातागाइका क्रेटर का निर्माण एक प्राकृतिक कारण से हुआ है। साइबेरिया का यह इलाका परमाफ्रॉस्ट से ढका हुआ है, जो जमीन की वह परत है जो साल भर बर्फ में ढकी रहती है। लेकिन हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि हो रही है, जिससे यह बर्फ तेजी से पिघल रही है। जब यह बर्फ पिघलती है, तो जमीन नीचे धंस जाती है और इस वजह से बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते हैं। बातागाइका क्रेटर भी इसी प्रक्रिया का परिणाम है और यह हर साल बड़ा होता जा रहा है।
क्यों चिंतित हैं वैज्ञानिक?: वैज्ञानिक इस गड्ढे को लेकर इसलिए चिंतित हैं क्योंकि परमाफ्रॉस्ट के पिघलने से कई समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। सबसे बड़ी चिंता यह है कि परमाफ्रॉस्ट में मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें जमा होती हैं। जब यह पिघलता है, तो ये गैसें वातावरण में मिल जाती हैं, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती है। इसके अलावा, परमाफ्रॉस्ट में कई प्राचीन सूक्ष्मजीव और वायरस भी फंसे होते हैं। इनके पिघलने से यह सूक्ष्मजीव फिर से सक्रिय हो सकते हैं, जिससे नई बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। यह स्थिति भविष्य में बड़ी महामारी का कारण भी बन सकती है।
स्थानीय लोगों के लिए खतरा: साइबेरिया में रहने वाले लोगों के लिए भी यह गड्ढा एक बड़ा खतरा है। यह गड्ढा लगातार फैल रहा है और इससे वहां के खेत और घर तबाह हो सकते हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि उनका जीवन पूरी तरह से जमीन और खेती पर निर्भर है।
कैसे रोका जा सकता है इसका विस्तार?: इस गड्ढे के विस्तार को रोकने का एकमात्र तरीका है ग्लोबल वार्मिंग को कम करना। इसके लिए हमें पर्यावरण के प्रति अधिक जिम्मेदारी लेनी होगी। जीवाश्म ईंधनों का उपयोग कम करना और स्वच्छ ऊर्जा जैसे सौर और पवन ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाना जरूरी है। इसके साथ ही पेड़ लगाना और वनों की कटाई को रोकना भी एक महत्वपूर्ण कदम है ताकि पर्यावरण को और नुकसान न पहुंचे। साइबेरिया में 'नर्क का द्वार' एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है, जिसे रोकने के लिए हमें जलवायु परिवर्तन के प्रति सचेत होना पड़ेगा। अगर समय रहते इसे नियंत्रित नहीं किया गया, तो इसके नतीजे पूरी दुनिया के लिए घातक हो सकते हैं।
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