भारतीय नियंत्रक एवं लेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश सरकार के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग को हर मोर्चे पर फेल बताया जा रहा है। लेखा परीक्षक ने अपनी रिपोर्ट में जिला अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में वाह्य रोगी-अंत: रोगी, डायग्नोस्टिक सेवाएं, चिकित्सीय उपकरण, मानव संसाधन, संक्रमण नियंत्रण एवं औषधि प्रबंधन को लेकर गंभीर टिप्पणी की है। रिपोर्ट कहती है कि आधे से अधिक अस्पतालों में बर्न वार्ड, ट्रामा वार्ड के साथ ही डायलिसिस, फिजियेथेरेपी, मनोचिकित्सा के लिए भर्ती की व्यवस्था ही नहीं है।
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) तो केवल सांप काटने का इलाज केंद्र बनकर रह गए हैं। जिला अस्पतालों तक में एक्सरे मशीन नहीं है। कुछ विरोधाभास भी सामने आए हैं, मसलन राजधानी लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में 74 फीसद डॉक्टरों की तो कमी मिली, परन्तु नर्सों की उपलब्धता 210 फीसद अधिक थी। 50 से लेकर 86 फीसद मरीजों को पांच मिनट से भी कम समय में डॉक्टर देख रहे हैं, जो आउटडोर में मर्ज खत्म करने, उसकी जांच और इलाज के लिए मानक के मुताबिक बहुत ही कम है।हृदयघात और निमोनिया के इलाज के मामले में सीएचसी के पास उपचार ही नहीं है। वे केवल रेफरल सेंटर बन कर रह गए हैं। उपचार में डायग्नोस्टिक सेवाओं की अति महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके बावजूद आधे से ज्यादा जिला अस्पतालों में एक्सरे मशीनों की कमी पाई गई है। अधिकतर सीएचसी पर अल्ट्रासोनोग्राफी सुविधा नहीं है तो सीटी स्कैन की भी एक तिहाई अस्पतालों में सुविधा पाई गई है।
पैथोलॉजी जांच की सुविधा में कमी है तो जांच करने वाले लैब टेक्नीशियन भी काफी नहीं हैं। यहां तक कि इस क्षेत्र में निजी एजेंसियों को लगाए जाने के बावजूद कोई सुधार नहीं आया हुआ है। कैग को 22 सीएचसी में से छह में ही पैथोलॉजिकल सेवाएं मिली हैं। लेखा परीक्षक ने आइसीयू के मामले में नमूने के तौर पर 11 चिकित्सालयों की जांच की तो पाया कि लखनऊ और गोरखपुर को छोड़कर कहीं भी आइसीयू की सुविधा नहीं थी। उसे ट्रामा सेवाएं भी केवल बांदा और सहारनपुर में मिली हैं।
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