'आशा ' की मौत, निराशा का अँधेरा
'आशा ' की मौत, निराशा का अँधेरा
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सच कहूं जब से मैंने अपने ही देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के ओशिवारा इलाके के एक आलीशान फ़्लैट में बुजुर्ग महिला अकेली रहने वाली आशा साहनी के करीब डेढ़ साल पहले हुई मौत के बाद उनके कंकाल बन जाने की खबर जबसे सुनी उसके बाद से मैं रात भर सो नहीं सका. इस खबर ने मुझे इस कदर झकझोर दिया कि मुझे विदेश में रह रहे इकलौते बेटे की फोन पर आवाज सुनने को तरसती, उसके स्वदेश आगमन की राह देखती बेबस माँ की पीड़ा को महसूस करने से ही कांपता रहा, जबकि आशाजी ने तो इसे भोगा था, तो उनकी पीड़ा कितनी घनी होगी इसे समझा जा सकता है.

अक्षम्य अपराध

जब से यह घटना रोशनी में आई है, तब से मीडिया और सोशल मीडिया पर इस विषय को लेकर कई प्रतिक्रियाएं आई हैं.जिसमे इस अवांछनीय लापरवाही के लिए आशा जी के बेटे को दोष दिया जा रहा है.बेशक उसने तो ऐसा अक्षम्य अपराध किया है कि उसे इस पृथ्वी लोक में तो ठीक ऊपर यम लोक में भी कभी सुकून नहीं मिलेगा. लेकिन यदि गहराई से विचार करें तो इस घटना के लिए आशा साहनी के पड़ोसी सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं जिन्हे एक साल से इस बुजुर्ग महिला की कोई खैरियत नहीं. उनकी मृत्यु के बाद देह के विकृत होने पर उठने वाली दुर्गन्ध किसी को महसूस कैसे नहीं हुई. दरअसल यह सामाजिक क्षरण की ऐसी घटना है जिसने समाज शास्त्रियों को भी सोचने को विवश कर दिया है. यह एक संयोग ही है कि बरसों पहले दिल्ली के नैना साहनी तंदूर कांड ने देश को झकझोरा था उसके बाद अब मुंबई की आशा साहनी कांड ने देश को सिहरा दिया है.

पूरा समाज दोषी

आशा साहनी की मौत के लिए केवल उनका बेटा या उनके पडोसी ही नहीं हम सब यानी यह पूरा समाज भी इसके लिए दोषी है.जो ऐसी घटनाओं के होने पर चंद दिन प्रतिक्रिया देकर चुप हो जाते है . जबकि देश के अपराध आंकड़े बताते हैं कि देश में बड़ी संख्या में वृद्धजन खासकर बड़े शहरों में असुरक्षित जीवन गुजारते हैं. वरिष्ठ नागरिकों की सबसे बड़ी तकलीफ इनसे किसी की बात नहीं होना है. जीवन के अंतिम काल में बोलने को भी तरसने वाले इन बुजुर्गों की तकलीफ को कोई समझना ही नहीं चाहता क्योंकि सब अपने आप में व्यस्त हैं.

लोप होने लगी सामुदायिकता की भावना

हर आदमी एकाकी रहने से होने वाली तकलीफ को महसूस तो कर रहा है लेकिन सामाजिक संपर्क करने के लिए पहल नहीं कर रहा है. सामुदायिकता की भावना लोप होने लगी है. रही सही कसर टीवी , मोबाईल और लेपटॉप ने पूरी कर दी. आज बच्चों से लेकर बड़े तक मोबाईल में उलझे देखें जा सकते है.इस आभासी दुनिया को सब लोग आनंद प्राप्ति का साधन मान बैठे हैं, जबकि सच्चा आनंद तो परस्पर मिलने में है. इससे न केवल सामाजिकता घट रही है, बल्कि सेहत भी ख़राब हो रही है, क्योंकि इस आभासी दुनिया के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता. हाथ की उँगलियों की हल्की सी जुम्बिश से नजारा सामने होता है.जबकि सामाजिक संपर्क के लिए घर से निकलना पड़ता है.हाथ पैर हिलाने पड़ते है.

वृद्धजन हमारी धरोहर

आशा साहनी की यह मौत समाज के लिए एक सबक छोड़ गई है कि अब भी समय है कि हम अपने देश की इन वृद्धजनों की धरोहर को स्नेह , सहयोग और सम्मान दें. परिवार के बीच रखकर इनका ख्याल रखें. उन्हें उनकी उम्र और सेहत के हिसाब से उचित भोजन , दवाई और अन्य जरूरतों को पूरा करें . हमारे ये बुजुर्ग सिर्फ स्नेह के और प्रेम से बोले गए दो बोलों के भूखे हैं . इनकी पीड़ा यही है कि इनसे कोई बतियाता नहीं है .हम ही अभागे हैं जो इन बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ नहीं ले पा रहे है .मेरे ख्याल से तो भारत जैसे देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ना प्रगति का नहीं अवनति का द्योतक है. अपने बुजुर्ग माँ -बाप को वृद्धाश्रम में भेजना प्राण को देह से अलग करने के समान है.ऐसा विचार तभी आ सकता है जब हम स्वभाव से सरल और तरल हो. शुष्कता असंवेदनशीलता की निशानी है, जबकि संवेदनशील होना तरलता की. सात्विक गुणों के समावेश के लिए पारिवारिक संस्कारों का होना जरुरी है.

 

कपूत बेटे के कारण कंकाल बनी माँ

अब भी समय है कि हम कपूत बेटे के कारण कंकाल बनी माँ की घटना से नसीहत लेकर अपने परिवारों में रहने वाले बुजुर्गों को सम्मान सहित आत्मीय सहयोग दें. विश्वास कीजिये जब हम इन बुजुर्गों के सान्निध्य में जब भी जितना वक्त गुजारेंगे तो जो ख़ुशी हमे मिलेगी उसके आगे दुनिया भर की धन दौलत का कोई मूल्य नहीं रहेगा. दरअसल ये बुजुर्ग ऐसे बूढ़े पेड़ हैं जो कभी भी धराशायी हो सकते है. इसलिए इनकी ममता की छाँव में जितना समय गुजार सकते हैं, गुजार लें क्योंकि ये दुबारा नहीं मिलेंगे. ये हकीकत की दुनिया है दोस्तों आभासी नहीं. यहां घाटे का  तो कोई चांस ही नहीं है. तो चलो आज से ही इसकी शुरुआत अपने घर में मौजूद बुजुर्गो से करते हैं.

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