अटलजी बीजेपी के लिए पिता तुल्य या चुनावी हथियार ?

अटलजी बीजेपी के लिए पिता तुल्य या चुनावी हथियार ?
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नई दिल्ली: अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न, एक शानदार कवि और अटल इरादों वाले शख्स, जिन्होंने 16 अगस्त की शाम 5.5 बजे दिल्ली के एम्स अस्पताल में अंतिम साँसे ली. उसके बाद तो न्यूज़ चैनल्स और समाचार पत्र अटलजी की यादों से भर गए, राजनेताओं के बढ़ चढ़कर बयान आने लगे और सभी बड़ी हस्तियां राजनीति के इस प्रखर सूर्य को श्रद्धांजलि देने के लिए होड़ लगा बैठी. कोई उन्हें भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री कह रहा था, तो कोई उन्हें राजनीति का पितामह घोषित करने में लगा हुआ था. लेकिन इन सबके बीच सवाल ये उठता है कि पिछले 15 दिनों में जितने राजनेता अटलजी से मिलने पहुंचे, क्या पिछले 10 सालों में उनमे से किसी ने अटलजी का हाल जानने की ज़ेहमत उठाई.

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उनकी खुद की पार्टी भाजपा ने ही उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया था, भारतीय जनता पार्टी को पहली बार केंद्र पर शासन करने का अवसर देने वाले अटलजी 2009 से ही एक ऐसी बीमारी डिमेंशिया से ग्रस्त थे, जिसमे मरीज नाम, जगह, तुरंत की गई बातचीत को भूलने लगता है, अवसाद से पीड़ित रहने लगता है, उसका व्यवहार बदलने लगता है, यहाँ तक की उसे खाने पीने में भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. वर्ष 2009 से ही वे व्हील चेयर पर थे और अपने घर की चार दीवारी में ही क़ैद रहते थे, 2009 से लेकर 2018 तक किसी ने उनकी सुध नहीं ली और अब 2019 में जब चुनाव नज़दीक आ रहे हैं तो बीजेपी असहित अन्य राजनेता, अपने इस कद्दावर नेता के कन्धों पर चढ़कर तख़्त पर बैठने का ख्वाब संजो रही है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अटलजी के प्रति अपने श्रद्धांजलि लेख में लिखा है कि अटलजी की आवाज़ उनके अन्तः करण में गूँज रही है, साथ ही पीएम मोदी ने उन्हें अपने श्रद्धांजलि लेख में पिता तुल्य बताते हुए कहा था कि "मेरे सिर से पिता का साया उठा गया है." जबकि यह बात जगजाहिर है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए मोदी ने संघ के कारण ही अटलजी की आवाज़ सुनना बंद कर दिया था, फिर वो उनके अन्तः करण से कैसे आ सकती है और अगर अटलजी, मोदी के पिता तुल्य थे, तो अटलजी का ये आज्ञाकारी बेटा 2009 से अपने पिता का हाल जानने क्यों नहीं पहुंचा, इसके पीछे कारण था संघ. संघ तो अटलजी के प्रधानमंत्री रहते ही उनका कार्यकाल समाप्त करना चाहता था, यहाँ तक कि संघ ने अटलजी पर सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री होने के आरोप भी लगाए थे. इसके बाद 2005 में अटलजी ने राजनीति से सन्यास ले लिया, शायद उन्हें अहसास हो गया था कि अब उनकी बात को सुनने और समझने वाला कोई नहीं है और हुआ भी वही, अटलजी के सन्यास लेते ही राजनेताओं का हुजूम, किसी भूखे भेड़िये के झुंड की तरह सत्ता रुपी मांस पाने के लिए मचल उठा और बंदरबांट का दौर शुरू हो गया, जो आज भी बदस्तूर जारी है.

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