तिलक जंञू राखा प्रभ ताका॥ कीनो बडो कलू महि साका॥
साधन हेति इती जिनि करी॥ सीसु दीया परु सी न उचरी॥
धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥ (दशम ग्रंथ)
भारत को संतों की भूमि कहा जाता है, इस पुण्यभूमि पर ऐसे-ऐसे महान संत और गुरु हुए हैं, जिनके विचार आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरित करते रहते हैं। वहीं कई ऐसी महान हस्तियां भी भारत में जन्मीं हैं, जिन्होंने धर्म रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया, लेकिन सच्चाई के मार्ग को नहीं छोड़ा। इन्ही में से एक थे सिखों के नौंवे गुरु, गुरु तेगबहादुर जी, जिन्होंने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के सामने घुटने टेकने के बजाए, जबरदस्ती किए जा रहे हिन्दुओं के धर्मान्तरण के खिलाफ आवाज़ उठाई और अपना जीवन बलिदान कर दिया, लेकिन धर्म और सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा।
आज ही के दिन 1621 को जन्मे सिखों के छटवें गुरु, गुरु हरगोबिंद सिंह के घर एक दिव्य बालक ने जन्म लिया, उस बालक का नाम त्यागमल रखा गया। बचपन से ही त्यागमल, सिखों के प्रथम गुरु, श्री गुरु नानक के बताए हुए मार्ग का अनुसरण करते रहे। वे बाल्यावस्था से ही संत स्वरूप गहन विचारवान, उदार चित्त, बहादुर व निर्भीक स्वभाव के थे और शिक्षा-दीक्षा, उनके गुरु और पिता गुरु हरिगोबिंद साहिब की छत्र छाया में हुई। वे बचपन से ही गुरुबाणी, धर्मग्रंथों के साथ-साथ शस्त्रों तथा घुड़सवारी आदि की शिक्षा प्राप्त करने लगे थे। लेकिन इसी बीच सिखों के 8वें गुरु, हरिकृष्ण राय जी का असमय निधन हो जाने की वजह से उन्हें बाल्यकाल में ही गुरु गद्दी पर बैठना पड़ा और वे सिखों के नौंवे गुरु कहलाए। महज 14 वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपने पिता के साथ आततायी औरंगज़ेब का विरोध करना शुरू कर दिया, जो बलपूर्वक हिन्दुओं का इस्लाम में धर्मान्तरण करा रहा था और जो नहीं मानते थे, उन्हें मार डालता था।
इस बीच औरंगज़ेब की यातनाओं से त्रस्त होकर कश्मीरी पंडितों का एक दल, गुरु तेग बहादुर के पास पहुंचा और उन्हें अपनी पीड़ा बताई। इससे गुरु तेग बहादुर बहुत आहत हुए और उन्होंने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के पास एक सन्देश पहुंचा कर कहलवाया कि अगर गुरु तेग बहादुर इस्लाम स्वीकार कर लेंगे, तो उनके अनुयायी भी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे और यदि, आप गुरु तेग बहादुर जी से इस्लाम कबूल नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करेंगे। इस पर औरंगज़ेब ने सोचा कि अगर धर्मान्तरण की इस योजना को गुरु तेगबहादुर का समर्थन मिल जाए तो वह आसानी से कई हिन्दुओं को मुसलमान बना सकेगा और भारत में इस्लाम का राज हो जाएगा। इसलिए जब उसे पता चला कि गुरु तेग बहादुर दिल्ली आ रहे हैं तो वह यह बात फैलाने लगा कि सिखों के गुरु इस्लाम कबूल करने वाले हैं और उनके दिल्ली पहुंचने से पहले ही उसने गुरु को आगरा से गिरफ्तार कर लिया। अगले दिन गुरु तेग बहादुर को औरंगज़ेब के दरबार में लाया गया, जहाँ वे एकदम शांत मुद्रा में पहुंचे, उनके चेहरे पर डर, हर्ष, क्रोध जैसे कोई भाव नहीं थे।
औरंगज़ेब ने गुरु तेग बहादुर को भ्रमित करने की कई कोशिशें की। उसने गुरु से कहा कि आप तो सिखों के गुरु हैं, जो हिन्दुओं से अलग होते हैं, फिर आप क्यों हिन्दुओं की तरफदारी कर रहे हैं। इस पर गुरु तेग बहादुर, जो वेदों और शास्त्रों में भी पारंगत थे, ने औरंगज़ेब को शास्त्रों के माध्यम से समझाया कि सभी मनुष्य एक हैं और मानवता ही परमधर्म है। इसके बाद औरंगज़ेब ने उन्हें अन्य देशों का उदहारण देते हुए कहा कि दूसरे कई देशों में जैसे एक ही धर्म इस्लाम का शासन है, वैसे ही हिंदुस्तान में भी अगर सभी लोग इस्लाम अपना लें, तो भेदभाव ख़त्म हो जाएगा और आपस में लड़ाई भी नहीं होगी। इस पर गुरुदेव ने उसे शिया- सुन्नी की लड़ाई और इस्लाम में भी कई समुदाय होने की बात कही। जब औरंगज़ेब के सभी पैंतरें गुरुदेव को इस्लाम कबूल करवाने में नाकाम रहे तो क्रूर बादशाह भड़क गया। उसने गुरु तेग बहादुर को इस्लाम या मौत में से किसी एक को चुनने का फरमान सुना दिया, इस पर भी गुरु तेग बहदुर बिल्कुल विचलित नहीं हुए।
जिसपर गुरुदेव ने कहा कि, उन्हें धर्म रक्षा के लिए मौत स्वीकार है, लेकिन इस्लाम कबूल करने से साफ़ इंकार कर दिया। जिसके बाद क्रूर बादशाह ने उन्हें जेल में डाल दिया, उन पर कई तरह के जुल्म किए, गुरु तेग बहादुर सब सहते रहे, लेकिन उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया। जिसके बाद औरंजजेब ने पूरी दिल्ली में ढिंढोरा पिटवा दिया कि, गुरु तेग बहदुर के इस्लाम न स्वीकार करने के कारण नवंबर 11, 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक पर उनका सिर कलम कर दिया जाएगा। फिर तय किए हुए दिन गुरु तेग बहादुर को चांदनी चौक लाया गया, यहां भी गुरु के चेहरे पर लेश मात्र भी डर नहीं था, वे एक ओंकार का जाप करते रहे। फिर औरंगज़ेब के आदेश पर काज़ी ने फ़तवा पढ़ा और जल्लाद जलालदीन ने तलवार से वार करके गुरू साहिब का शीश धड़ से अलग कर दिया, लेकिन गुरु तेग़ बहादुर के मुंह से 'आह' तक नहीं निकली। इस तरह 'हिन्द की चादर', हिन्द के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करके परमज्योत में लीन हो गई। जिस जगह गुरु जी का शीश काटा गया था, उस स्थान पर आज शीशगंज गुरुद्वारा है, जहां सिख-हिन्दू आदि जाकर गुरुदेव के परम बलिदान को याद कर आज भी द्रवित हो जाते हैं।
भाई सतीदास-मतिदास का भी हुआ था क़त्ल
ये दोनों भाई भी गुरु तेग बहदुर के साथ ही गिरफ्तार किए गए थे। क्रूर औरंगज़ेब ने दोनों भाइयों के सामने भी वही प्रश्न रखा कि उन्हें इस्लाम कबूल है या मृत्यु। इस पर भाई मतिदास ने काजी से पूछा, काजी, यदि मैं इस्लाम स्वीकार कर लूँ, तो क्या मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी? काजी ने कहा कि यह कैसे सम्भव है। जो पैदा हुआ है, उसे मरना तो है ही। इस पर भाई मतिदास ने कहा कि, अगर तुम्हारा इस्लाम मजहब मुझे मौत से नहीं बचा सकता, तो फिर मैं अपने हिन्दू धर्म में रहकर ही मृत्यु का वरण क्यों न करूँ ? इस पर भड़ककर औरंगज़ेब के आदेश पर भाई मतिदास के हाथ दो लकड़ियों से बाँध दिए गए और आरे से चीरकर उन्हें मार डाला गया।
इसके एक दिन बाद भाई सतीदास को भी अत्याचारी बादशाह के कहने पर रुई में लपेटकर जला दिया गया। दोनों भाई भी मरते दम तक एक ओंकार का जाप करते रहे, लेकिन उन्होंने आततायी औरंगज़ेब के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया। ऐसे अमर बलिदानियों के ही कारण आज भारत में धर्म जीवित है। ऐसे वीर बलिदानियों को शत-शत नमन।
जातिगत आरक्षण: वरदान या अभिशाप ?
कहीं 'मुक्ति की कामना' तो कहीं 'क़यामत' का इंतज़ार, कुछ यूँ होता है हर धर्म में 'अंतिम संस्कार'
कहीं भस्म, कहीं जूता, कहीं बिच्छू तो कहीं जलते अंगारों से खेली जाती है होली