नई दिल्ली: आज, 29 अक्टूबर को धन्वन्तरि जयंती पर देशभर में आयुर्वेद दिवस मनाया जा रहा है, जो हमारे देश की और संभवतः दुनिया की सबसे प्राचीन और पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली के सम्मान और प्रसार के लिए समर्पित है। आयुर्वेद, जो संस्कृत के शब्दों 'आयु' (जीवन) और 'वेद' (ज्ञान) से मिलकर बना है, जीवन के विज्ञान के रूप में जाना जाता है। इस प्रणाली का उद्देश्य न केवल बीमारियों का उपचार करना है, बल्कि शरीर, मन और आत्मा के संतुलन के माध्यम से संपूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति भी है।
वैसे तो हमारे ग्रंथों में आयुर्वेद का इतिहास युगों प्राचीन है, लेकिन पश्चिम जगत के विद्वान इसे दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक पुराना मानते हैं, यानी ईसा मसीह के जन्म से दो शताब्दियाँ पहले का। इसकी नींव वैदिक साहित्य में वर्णित ‘वैशेषिक’ और ‘न्याय’ जैसे दार्शनिक स्कूलों पर आधारित है। वैशेषिक स्कूल ने उन धारणाओं को विकसित किया, जो किसी रोगी की स्थिति का विश्लेषण करने और उपचार करने में सहायक थीं। वहीं, न्याय स्कूल ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी रोगी के उपचार से पहले उसकी स्थिति और रोग की प्रकृति को भलीभांति समझना आवश्यक है।
आयुर्वेद की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा से मानी जाती है, जिन्होंने इसे मानव कल्याण के लिए ऋषियों को प्रदान किया। ऋषियों ने इस ज्ञान को मौखिक परंपरा के माध्यम से अपने शिष्यों और फिर समाज में प्रसारित किया। आयुर्वेद में जड़ी-बूटियों और पौधों के औषधीय गुणों का उल्लेख श्लोकों के रूप में किया गया है। इनमें वर्णित प्रमुख ग्रंथों में ‘चरक संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ का विशेष महत्व है। चरक संहिता में चिकित्सा के सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, जबकि सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा का विवरण मिलता है।
आयुर्वेद के अनुसार, पूरा ब्रह्मांड पांच मूल तत्वों से मिलकर बना है – वायु, जल, आकाश, पृथ्वी और अग्नि। इन पंच महाभूतों के संयोजन से मानव शरीर में तीन प्रमुख दोष उत्पन्न होते हैं, जिन्हें त्रिदोष कहते हैं – वात, पित्त और कफ। इन तीनों दोषों का संतुलन शरीर के स्वस्थ संचालन के लिए आवश्यक होता है। वात दोष को गति और संचरण के लिए, पित्त दोष को पाचन और चयापचय के लिए, और कफ दोष को स्थिरता और स्नेहन के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
आयुर्वेद का सिद्धांत कहता है कि यदि किसी व्यक्ति में दोषों का संतुलन बिगड़ जाता है, तो उसे रोग हो सकता है। उदाहरण के लिए, वात दोष का असंतुलन शरीर में सूखापन और कमजोरी पैदा करता है, पित्त का असंतुलन गर्मी और चिड़चिड़ापन लाता है, और कफ का असंतुलन भारीपन और आलस्य उत्पन्न करता है।
आयुर्वेद के अनुसार, मानव शरीर सात मुख्य धातुओं (ऊतकों) से मिलकर बना है – रस (प्लाज्मा), रक्त (रक्त), मांस (मांसपेशियां), मेद (वसा), अस्थि (हड्डी), मज्जा (मज्जा), और शुक्र (वीर्य)। ये सप्तधातु शरीर की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त, आयुर्वेद शरीर में तीन मल (अपशिष्ट उत्पाद) – मूत्र, पुरीष (मल), और स्वेद (पसीना) की भी चर्चा करता है।
आयुर्वेद में अग्नि को पाचन क्रिया का प्रमुख तत्व माना गया है। इसे जठराग्नि कहा जाता है, जो शरीर के पाचन तंत्र को नियंत्रित करती है। अग्नि की स्थिति के अनुसार, किसी व्यक्ति के पाचन स्वास्थ्य का अनुमान लगाया जाता है। आयुर्वेद का मानना है कि अग्नि का असंतुलन अल्सर, कब्ज, दस्त जैसी समस्याओं का कारण बन सकता है।
आयुर्वेद की एक महत्वपूर्ण विधि पंचकर्म है, जिसका उद्देश्य शरीर को विषाक्त पदार्थों से मुक्त करना और कायाकल्प करना है। पंचकर्म पांच प्रमुख क्रियाओं का समूह है – विरेचन (रेचक क्रिया), वमन (उल्टी द्वारा शुद्धि), बस्ती (एनिमा द्वारा शुद्धि), रक्त मोक्षण (रक्त की शुद्धि), और नस्य (नाक के माध्यम से औषधि का प्रवेश)। ये सभी प्रक्रियाएं शरीर की सफाई और शारीरिक और मानसिक संतुलन की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।
आयुर्वेद में आठ प्रमुख चिकित्सा अनुशासन शामिल हैं, जिन्हें अष्टांग आयुर्वेद कहा जाता है – कायाचिकित्सा (आंतरिक चिकित्सा), कौमारभृत्य (बाल चिकित्सा), भूतविद्या (मनोचिकित्सा), शल्य (शल्य चिकित्सा), शालाक्य (नेत्र, नाक, कान, और गला चिकित्सा), अगद तंत्र (विष विज्ञान), रसायन (पुनर्जीवन चिकित्सा), और वाजीकरण (प्रजनन चिकित्सा)। ये आठ अनुशासन आयुर्वेद को एक समग्र चिकित्सा प्रणाली के रूप में स्थापित करते हैं।
आधुनिक समय में, आयुर्वेद केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि एलॉपथी दवाइयों की तरह इसके कोई दुष्प्रभाव यानी साइड इफेक्ट्स नहीं होते हैं। आज, लोग स्वास्थ्य और कल्याण के प्राकृतिक तरीकों की ओर रुख कर रहे हैं, और आयुर्वेद इस दिशा में एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की वैश्विक स्वीकृति के पीछे इसके वैज्ञानिक आधार, जड़ी-बूटियों के उपचारात्मक गुण, और समग्र दृष्टिकोण का बड़ा योगदान है।
भारत में आयुर्वेद के अलावा, अन्य प्रमुख चिकित्सा प्रणालियाँ भी विद्यमान हैं, जैसे कि यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी, योग और प्राकृतिक चिकित्सा। इनमें से प्रत्येक प्रणाली का अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण है, लेकिन सभी का उद्देश्य स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देना है और कहीं ना कहीं इनकी जड़ें आयुर्वेद में ही समाहित हैं। सिद्ध पद्धति भी आयुर्वेद की तरह पंच महाभूतों पर आधारित है, और इसमें 96 कारकों का उल्लेख है जो मानव शरीर के कार्यों को नियंत्रित करते हैं।
आयुर्वेद एक प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है, जो आज भी अपने सिद्धांतों और उपचार विधियों के आधार पर समृद्ध है। यह प्रणाली न केवल बीमारियों के उपचार के लिए, बल्कि शरीर, मन और आत्मा के सामंजस्य के लिए भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। आज के दिन, जब हम आयुर्वेद दिवस मना रहे हैं, यह हमारे लिए गर्व का क्षण है कि हमारे पास एक ऐसी समृद्ध चिकित्सा प्रणाली है जो हजारों सालों से हमारे स्वास्थ्य की देखभाल कर रही है।
आयुर्वेद की व्यापक स्वीकृति और समृद्धि में इसके सिद्धांतों, जड़ी-बूटियों के गहरे ज्ञान, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का बड़ा योगदान है। इसकी समग्र दृष्टि और प्राकृतिक उपचार पद्धतियाँ आधुनिक युग के लोगों को एक स्वस्थ जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं। आने वाले समय में, आयुर्वेद न केवल भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में एक प्रमुख चिकित्सा प्रणाली के रूप में उभरेगा।
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