'90% मुसलमान हैं, सेकुलरिज्म की क्या जरूरत..', जो बांग्लादेश में हो रहा, भारत में भी...?

'90% मुसलमान हैं, सेकुलरिज्म की क्या जरूरत..', जो बांग्लादेश में हो रहा, भारत में भी...?
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ढाका: बांग्लादेश में शेख हसीना के तख्तापलट के बाद सत्ता संभालने वाली नई अंतरिम सरकार का झुकाव तेजी से कट्टरपंथी दिशा में बढ़ता दिख रहा है। देश की स्थापना करने वाले शेख मुजीबुर रहमान की धरोहर, बंगाली राष्ट्रवाद और सेकुलर विचारों से दूर होकर अब बांग्लादेश पाकिस्तान की विचारधारा की ओर झुकता नजर आ रहा है। इस बदलाव का संकेत बांग्लादेश के अटॉर्नी जनरल, मोहम्मद असदुज्जमां के उस बयान से मिलता है जिसमें उन्होंने सेकुलरिज्म की प्रासंगिकता पर सवाल उठाया। स्थानीय अखबार *Prothom Alo* के मुताबिक, हाई कोर्ट में 2011 के 15वें संविधान संशोधन पर चल रही सुनवाई में असदुज्जमां ने कहा कि बांग्लादेश में, जहां 90 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है, वहां सेकुलरिज्म का कोई औचित्य नहीं है।

शेख हसीना के कार्यकाल में लागू किए गए इस 15वें संविधान संशोधन ने बांग्लादेश को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का दर्जा दिया था और शेख मुजीबुर रहमान को राष्ट्रपिता घोषित किया था। इसके अलावा, महिलाओं के अधिकार और भागीदारी को भी बढ़ावा दिया गया था। लेकिन अब नई सरकार इस संशोधन को हटाने के इरादे में है, क्योंकि वो कट्टर इस्लामी रास्ते पर चल रही है। असदुज्जमां ने अदालत में कहा कि यदि देश की इतनी बड़ी आबादी मुस्लिम है, तो संविधान में सेकुलरिज्म के स्थान का कोई मतलब नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने सरकार से अपील की कि पुराने नियमों को वापस लाया जाए, जिसमें इस्लाम पर भरोसा प्राथमिकता में हो। 

एक और बदलाव जो नई सरकार के दृष्टिकोण को दर्शाता है, वह है बंगाली राष्ट्रवाद को संविधान से हटाने की योजना। अटॉर्नी जनरल ने संविधान के आर्टिकल 9 पर सवाल उठाते हुए कहा कि इसमें केवल बंगाली राष्ट्रवाद का उल्लेख गलत है, क्योंकि इससे उन अन्य समुदायों का अपमान होता है जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया। माना जा रहा है कि नई सरकार बंगाली राष्ट्रवाद को हटाकर इस्लाम को राष्ट्रीय पहचान बनाने की सोच रही है।

बांग्लादेश में इस बदलाव पर हो रही अदालत की बहस भारत में कुछ नेताओं द्वारा किए गए उन बयानों की याद दिलाती है, जिनमें कहा गया था कि भारत एक सेकुलर देश है क्योंकि यहां हिंदू बहुसंख्यक हैं। ऐसे नेताओं का कहना था कि यदि भारत में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक होती, तो यहां सेकुलरिज्म की अवधारणा संभवतः नहीं होती, क्योंकि इस्लाम में धर्मनिरपेक्षता के लिए कोई स्थान नहीं है। भारत में ऐसे बयानों को अक्सर नफरती भाषण कहकर खारिज कर दिया जाता है। लेकिन बांग्लादेश में इसी तरह की बातें अब खुलेआम अदालत में कही जा रही हैं, और यह सवाल खड़ा होता है कि धर्मनिरपेक्षता और बहुसंख्यक विचारधारा के बीच का यह संघर्ष केवल भारत या बांग्लादेश तक सीमित है, या यह एक व्यापक बहस का हिस्सा है। 

ये भी नहीं कहा जा सकता कि ये दूसरे देश की बात है, 60-70 साल पहले ये लोग भी हमारे साथ ही रहते थे और हमारे जैसे कई लोग आज भी वहां रहते हैं। इसलिए ये कोई मंगल ग्रह की बात नहीं है, हमारी ही बात है, तो विचार भी हमें ही करना होगा। भारत में मुस्लिम आबादी बढ़ने के कुछ असर देखे गए हैं, कश्मीर का उदाहरण लें, जहाँ दूसरे लोगों को रहने ही नहीं दिया जाता, झारखंड के कुछ गाँवों में आबादी बढ़ गई, तो वहां के स्कूलों में रविवार की जगह, जुम्मा (शुक्रवार) की छुट्टी घोषित कर दी गई, तमिलनाड़ु के एक गाँव में हिन्दू जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि ये इस्लाम के खिलाफ था, राज्य सरकार ने भी ये बात मान ली, फिर हाई कोर्ट ने दखल दिया, तब जाकर सैकड़ों साल पुराना जुलुस निकला, बंगाल में खुलेआम कंगारू कोर्ट चलती है, जहाँ इस्लाम के हिसाब से सजा दी जा रही है। ये चंद उदाहरण हैं, जो आबादी के असंतुलन को दर्शाते हैं, अब एक सवाल पर हर भारतीय को गौर करना चाहिए कि अगर भारत में मुस्लिम बहुसंख्यक होते, तो क्या देश सेक्युलर होता ? 

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