दुनिया भर में कोरोना का प्रकोप बढ़ते ही जा रहा है. इससे रोकने के लिए हर संभव कोशिश की जा रही है. ऐसे में वायरस से बचने के लिये आपको किसी ने तीन परतों वाला मास्क पहनने की सलाह भी दी होगी तो किसी ने N95 मास्क का भी जिक्र किया होगा, लेकिन कोरोना वायरस के खतरे के बारे में जानने के बाद बस्तर के कुछ इलाकों में आदिवासियों ने साल के पत्तों का ही मास्क बनाकर उसका उपयोग करना शुरू किया है. असल में कांकेर जिले के अंतागढ़ के कुछ गांवों में जब एक बैठक बुलाई गई तो आदिवासी वहां पत्तों से बनाई गई मास्क पहनकर पहुंचे भर्रीटोला गांव के एक नौजवान ने बताया, 'कोरोना के बारे में गांव के लोगों ने सुना तो दहशत में आ गए. हमारे पास कोई और उपाय नहीं था. गांव वालों के पास तो मास्क है नहीं. इसलिए हमारे गांव के लोग अगर घरों से बाहर निकल रहे हैं तो वे सरई के पत्तों वाले मास्क का उपयोग कर रहे हैं. '
इस बारे में गांव के पटेल मेघनाथ हिडको का कहना था कि हमें कोरोना वायरस की जानकारी मिली तो लगा कि खुद ही उपाय करना पड़ेगा क्योंकि गांव से आसपास के सारे इलाके बहुत दूर हैं. इसके अलावा इस माओवाद प्रभावित इलाके में आना-जाना भी बहुत आसान नहीं है. एक चैनल के लिए काम करने वाले जीवानंद हल्दर ने इन इलाकों में रिपोर्टिंग के दौरान पाया कि पत्ते से बना मास्क एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंच रहा है. उन्होंने कहा, 'आदिवासियों को इस तरह के मास्क पहने देखना मेरे लिए नया अनुभव था. एक गांव के लोग मास्क का उपयोग कर रहे हैं तो दूसरे गांव के लोग भी उसकी देखा-देखी पत्तों का मास्क लगाने लग गए हैं. आदिवासी एक दिन इसका उपयोग करते हैं और अगले दिन नया मास्क बना लेते हैं. ' हालांकि चिकित्सकों का कहना है कि इस तरह के मास्क एक हद तक तो बचाव करते हैं लेकिन इसमें सांस लेने में तकलीफ भी हो सकती है.
रायपुर के डॉ. अभिजीत तिवारी ने कहा, 'आदिवासी समाज बरसों की अपनी परंपरा और ज्ञान से हम सबको समृद्ध करता रहा है. उनका पारंपरिक ज्ञान हमेशा चकित कर देता है, लेकिन कोरोना के मामले में बेहतर है कि वे भी देश के दूसरे नागरिकों की तरह अपने-अपने घरों में रहें. जरुरी हो तो सरकार को चाहिए कि वह आदिवासी इलाकों में कपड़ों से बने मास्क का मुफ्त वितरण करे, जिसे धो कर बार-बार उपयोग किया जा सके.'
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