महामारी कोरोना को फैलने से रोकने की कोशिशों के बीच 'इम्यूनिटी पासपोर्ट' की चर्चा इन दिनों जोरों पर है. कुछ सरकारें ऐसे दस्तावेज पर बल दे रही हैं जो किसी व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता को प्रमाणित करते हैं. हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इससे भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा.
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आपकी जानकारी के लिए बता दे कि कोरोना वायरस के टीके के विकास में अभी देर है. ऐसे में किसी व्यक्ति के संक्रमित होने और सार्स-सीओवी-2 संक्रमण के लिए प्रतिरोधक क्षमता रखने का प्रमाण देने के प्रस्ताव पर गहन मंथन चल रहा है. अमेरिका, चिली, जर्मनी, इटली व ब्रिटेन समेत कई देशों ने 'इम्यूनिटी पासपोर्ट' के इस्तेमाल का सुझाव दिया है. मतलब, जिनके पास 'इम्यूनिटी पासपोर्ट' होगा उन्हें शारीरिक दूरी की पाबंदी समेत अन्य कार्यो की छूट दी जा सकती है.
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अपने बयान में सीएसआइआर के कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी की वरिष्ठ वैज्ञानिक उपासना रे ने खास बातचीत में कहा कि लोगों को प्रतिरोधक क्षमता रखने वाला प्रमाणित करने के पीछे तर्क है कि ऐसे लोगों में वायरस से लड़ने वाले एंटीबॉडी बने हैं और मौजूद हैं. हालांकि, इस संबंध में भारत का रुख बहुत सतर्कता बरतने वाला है. वही,आइसीएमआर के चेन्नई स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी के निदेशक मनोह मुरहेकर ने कहा, 'इसका अभी कोई प्रमाण नहीं हैं कि कोविड-19 से संक्रमित व्यक्ति दोबारा पीड़ित नहीं हो सकता. दक्षिण कोरिया से लोगों के दोबारा संक्रमित होने की खबरें आ रही हैं. इसलिए, खून में सार्स-सीओवी-2 एंटीबॉडी होने के आधार पर इम्यूनिटी पासपोर्ट देना व्यावहारिक नहीं है.'
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