गोस्वामी तुलसीदास अपनी महान कृति रामचरितमानस के लिए जाने जाते हैं, रामचरितमानस मूल रूप से रामायण ग्रन्थ को आधार मानकर लिखी गई है, इसीलिए कई लोग तुलसीदासजी को रामायण के रचियता वेद व्यास जी का अवतार भी मानते हैं. राजपुर में जन्मे तुलसीदासजी के मन में रामभक्ति विद्यमान थी. बताया ये भी जाता ही कि तुलसीदासजी ने पैदा होते ही पहला नाम राम का लिया था, इसीलिए कई जगह पर उन्हें रामबोला भी कहा जाता है.
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे काशी चले गए और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे, कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया. हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की, हनुमान्जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें," इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े. चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया, एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए. उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं, तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके, तभी पीछे से हनुमान्जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे, इस पर हनुमान्जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे.
संवत् 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुनः प्रकट हुए, उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये, अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये.
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