कल ऑफिस में लंच के बाद सहकर्मियों के साथ चार मंजिल नीचे उतरकर पास की चाय की दुकान पर चाय पीने गया, तो हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए 12 साल के राजू ने चार कट चाय कांच के गिलास में भरकर दे दी.चय की चुस्कियों के बीच हम लोग किसान आंदोलन के दौरान हुई अनपेक्षित हिंसा पर चर्चा करने लगे. राजू के चेहरे पर आई मुस्कान के पीछे छुपी बेबसी के ऐसे दृश्य कहीं भी देखने को मिल जायेंगे,जहाँ राजू , मुन्नी,असलम या बारीक़ नाम वाले अनेक छोटी उम्र के बच्चे बाल मजदूरी करते देखे जा सकते हैं. कॉपी ,किताब की उम्र में इनके हाथ चाय के गिलास ,तगारी ,औजार और झाड़ू पोछा देखकर मन व्यथित हो जाता है.
बचपन हर इंसान की जिंदगी का वह हसीन पल होता है, जब न कोई चिंता होती है और न कोई जिम्मेदारी .बस अपनी मस्ती में खोए रहना और खेलकूद के मजे लेना जिंदगी का अहम पड़ाव होता है. लेकिन यह जरुरी नहीं कि हर बच्चे का जीवन ऐसे ही गुजरे. बता दें कि बाल मजदूरी करने वाले बच्चों का जीवन प्रकृति,प्रियजन और मित्रों से वंचित हो जाता है. 14 साल से कम उम्र का बच्चा जीविका के लिए काम करता है तो उसे बाल श्रम कहा जाता है. बच्चो द्वारा मजदूरी किये जाने में माता -पिता की गरीबी ,गैर जिम्मेदारी और काम लेने वाले का लालच प्रमुख होता है.अध्ययन से पता चला है कि बाल मजदूरी से बच्चों के सामाजिक ,बौद्धिक ,शारीरिक और मानसिक दृष्टिकोण से इनकी बुद्धि और विकास में अवरोध पैदा होता है.
दरअसल बाल श्रम एक वैश्विक समस्या है. लेकिन भारत में स्थिति बहुत भयावह है . पूरी दुनिया का 12 प्रतिशत बाल श्रम भारत में है. 2001 की जन गणना के अनुसार देश में 12 .7 मिलियन बल श्रमिक हैं . एक एनजीओ के अनुसार 50 फीसदी बल श्रमिक सप्ताह के सातों दिन काम करते हैं.वहीँ 53 .2 प्रतिशत बाल श्रमिक यौन प्रताड़ना का शिकार होते हैं . हालाँकि 2005 में बाल श्रम को नियंत्रित करने हेतु नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट स्कीम के तहत 21 राज्यों के 250 जिलों तक विस्तार भी दिया गया.लेकिन परिणाम अनुकूल नहीं मिल पा रहे हैं .यह खेद का विषय है.
समाधान के लिए समाज की सहभागिता जरुरी- सच तो यह है कि हमारे देश में बाल श्रम को गंभीरता से लिया ही नहीं गया है . इसमें माता -पिता द्वारा छोटी उम्र में बच्चों को जिम्मेदारी सौंपने की मानसिकता और नियोक्ता द्वारा अपने लालच में इनको अपनी दुकानों अथवा अन्य कार्य स्थलों में रोजगार देने से भी इस अभिशाप से मुक्ति नहीं मिल पा रही है. एक विडंबना यह है कि जब से बाल मजदूरी पर रोक के कानून बने हैं, तब से जरूरतमंदों को काम नहीं मिलने की शिकायतें भी सामने आई है .बाल श्रम का हवाला देकर इन्हे काम पर नहीं रखा जाना भी एक कारण है .हालांकि 83 प्रतिशत बाल मजदूर रिश्तेदारों के खेत और अन्य कार्य क्षेत्रों में काम करते हैं.जबकि हर शख्स को दो वक्त की रोटी,आठवीं तक मुफ्त शिक्षा और गरीबों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार की है.लेकिन मेरा मानना है कि इस समस्या के निदान में सरकार के साथ समाज की भी सहभागिता होनी चाहिए.जब तक बाल श्रम के प्रति समाज नजरिया नहीं बदलेगा तब तक यह सिलसिला जारी रहेगा.हालाँकि कई एनजीओ इस काम में मदद कर रहे हैं.
नया श्रम कानून भी कारगर नहीं - पिछले साल 19 जुलाई 2016 को राज्य सभा में बाल श्रम बिल में एक नया संशोधन किया गया है.जिसमें 14 से 18 साल के बच्चों को अहानिकर क्षेत्रों में कार्य करने की अनुमति दी गई है. जो बाल श्रम के मूल सिद्धांत के विपरीत है.यह बिल अभी लोकसभा से पारित होना शेष है . जब -जब भी बाल श्रम के खिलाफ कोई कानून बनने की प्रक्रिया की जाती है, तब -तब ऐसी बातो का समावेश हो जाता है कि जिससे यह मामला अपने मूल विषय तक नहीं पहुँच पाता है.
बचपन बचाओ आंदोलन - देश में बाल श्रम की खतरनाक स्थिति को देखते हुए बच्चों को भगवान का स्वरूप मानते हुए उनका बचपन छीने जाने की पीड़ा को अनुभूत कर मध्य प्रदेश के कैलाश सत्यार्थी ने बचपन बचाओ आंदोलन की शुरुआत की थी . जिसका मकसद बाल मजदूरी के दल -दल में फंसे बच्चों को निकालकर उन्हें उचित शिक्षा मुहैया कराना और समाज की मुख्य धारा में लौटाना था. बेशक इस आंदोलन से बाल मजदूरों को राहत मिली लेकिन पूरी तरह उन्मूलन नहीं हुआ . बचपन बचाओ आंदोलन की वजह से कैलाश सत्यार्थी प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार पा गए लेकिन देश में बाल मजदूरी बदस्तूर जारी है.
बाल श्रम को खत्म करने में सरकार की नाकामी और समाज की उदासीनता पर किसी कवि ने बहुत ही उचित पंक्तियाँ लिखी हैं जिन्हे यहां उद्धृत करना मौजूं है -
अभी तो तेरे पंख उगे थे,अभी तो तुझको उड़ना था,
जिन हाथों में कलम शोभती ,उनमें कुदाल क्यों पकड़ाना था.
मूक -बधिर पूरा समाज है,उसे तो चुप ही रहना था .
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