चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है. इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके. यह आलिंगन दरअसल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे "चिपको " की संज्ञा दी गई. श्रीमती गौरादेवी के नेतृत्व में चिपको-आंदोलन शुरू किया गया था. आज प्रकृति के प्रति प्रेम दर्शाते इस चिपको आंदोलन की 45वीं सालगिरह है. इस अवसर पर गूगल ने भी चिपको आंदोलन का डूडल जारी करके, आंदोलन के प्रति सम्मान प्रकट किया है.
इस आंदोलन की खासियत यह थी कि बिना किसी हिंसा या उपद्रव के यह आंदोलन चलाया गया था, शांति और प्रेम के साथ पेड़ों की कटाई रोकने के लिए यह आंदोलन चलाया गया था. चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था. एक समय जब जोधपुर के महाराजा ने जब पेड़ों को काटने का आदेश दिया था तब स्थानीय महिलाएं पेड़ से यह कहते हुए चिपक गई थीं कि ‘‘पेड़ नहीं, हम कटेंगी’’, इस अहिंसक प्रतिरोध का किसी के पास उत्तर नहीं था और इस तरह उन्होंने पेड़ों को कटने से बचा लिया.
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ आवाज उठाने में महिलाएं कितनी सक्रिय रहीं हैं, इस आंदोलन के जरिए उन्होंने यह भी दर्शाया कि किस प्रकार महिलाएं पेड़-पौधे से संबंध रखती हैं और पर्यावरण के विनाश से कैसे उनकी तकलीफें बढ़ जाती हैं. आज जब हम विज्ञान की ऊँचाइयों को छू रहे हैं तब भी हमारी आवश्यकता की पूर्ती प्रकृति से ही होती है, प्रकृति को इसीलिए माता कहा जाता है क्योंकि वह हमारा पालन पोषण करती है. प्रकृति का मनुष्य जीवन में इतना महत्त्व होते हुए भी हम अपने लालच के कारण उसका संतुलन बिगाड़ रहे हैं.
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