नई दिल्ली: केंद्र और भारतीय सेना ने दिल्ली उच्च न्यायालय में कहा है कि ‘शादी का अधिकार’ मौलिक अधिकार नहीं है और यह संविधान के तहत 'जीवन जीने के अधिकार' के अंतर्गत नहीं आता है. इसके साथ ही उन्होंने कहा है कि जज एडवोकेट जनरल (जैग) विभाग या आर्मी की किसी अन्य शाखा में वैवाहिक स्थिति के आधार पर कोई पक्षपात नहीं है. उन्होंने एक जनहित याचिका को रद्द करने की मांग करते हुए एक हलफनामे में यह बात कही है.
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इस जनहित याचिका में विवाहित लोगों पर आर्मी की कानून शाखा जैग विभाग में भर्ती किए जाने पर प्रतिबन्ध को चुनौती दी गई है. केंद्र सरकार ने बताया है कि प्रतिबंध पुरुषों और महिलाओं दोनों पर है क्योंकि इसमें भर्ती होने से पहले के प्रशिक्षण में काफी शारीरिक और मानसिक दबाव होता है और एक बार जब वे इसमें भर्ती हो जाते हैं तो उनके शादी करने या बच्चे करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होती. यह हलफनामा वकील कुश कालरा की जनहित याचिका के उत्तर में दायर किया गया है.
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कालरा ने जैग के लिए विवाहित लोगों पर लगे प्रतिबंध को ‘‘संस्थागत भेदभाव’’ करार दिया है. हलफनामे में कहा गया है कि, ‘‘यह उल्लेखनीय है कि शादी का अधिकार अनुच्छेद 21 के लिहाज से जीवन जीने का अधिकार नहीं हो सकता. यह कहीं भी लिखा या साबित नहीं हुआ है कि किसी भी इंसान का जीवन शादी के बिना परेशानी से भरा हुआ या अस्वास्थ्यकर होगा.’’
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