अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' मनाने का निर्णय वर्ष 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग' ने मिलकर किया था, इससे पहले नामीबिया में विन्डंहॉक में हुए एक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रेस की आज़ादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आज़ादी की ज़रूरत के रूप में देखा जाना चाहिए. तब से हर साल '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वीतंत्रता दिवस' के रूप में मनाया जाता है. यूनेस्को महासम्मेलन के 26वें सत्र में 1993 में इससे संबंधित प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था.
अगर भारत में इसकी स्थिति के बात करें तो, लोकतंत्र के इस चौथे खम्बे पर जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसे संकुचित विचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने और ग़रीबी तथा अन्य सामाजिक बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ाई में लोगों की सहायता करने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. लेकिन जितनी बड़ी जिम्मेदारी इसके कंधो पर है, उतनी ही बड़ी लापरवाही मीडिया द्वारा इस क्षेत्र में दिखाई जा रही है. यहां का मीडिया सिर्फ कुछ रसूखदार लोगों की चरणवन्दना में लगा हुआ है. और जब इन हस्तियों को छींक भी आती है तो ऐसा हंगामा मचता है कि गरीबों की आहें-कराहें उसमे दब कर रह जाती हैं.
यह वास्तव में समाज का आइना कहे जाने वाले मीडिया का सबसे वीभत्स रूप है. जापान और जर्मनी जैसे विकासशील देशों में प्रेस को अभिव्यक्ति की पूर्ण आज़ादी नहीं है, लेकिन फिर भी ये देश भारत से कई आगे हैं. क्योंकि वहां का मीडिया सत्य प्रदर्शित करता है, समाज को जागरूक करता है, जबकि भारत का मीडिया, मिली हुई स्वतंत्रता का नाजायज़ फायदा उठाकर जनता को गुमराह करने से भी नहीं चूकता. वास्तव में मीडिया अपने उद्देश्य से भटक गया है, जहाँ उसे जनता का अरमान बनना होता है, वहां वो हुक्मरानों का फरमान बन जाता है. हालांकि, थोड़ी राहत इस बात से जरूर है कि कुछ पत्रकार आज भी पूरी तल्लीनता से अपने कार्य को अंजाम देने में लगे हुए हैं, बेशक 'अकेले ही'.
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