आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवशयनी एकादशी व्रत करते है। जी हाँ और इस बार यह एकादशी 20 जुलाई यानी आज मनाई जा रही है। आप सभी को बता दें कि सनातन धर्म में इस एकादशी का काफी महत्व माना जाता है क्योंकि आज से भगवान विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर गहरी निद्रा में चले जाते हैं। वहीं इसके बाद कार्तिक मास की एकादशी तिथि तक को भगवान विष्णु योगनिद्रा से निकलते हैं। कहा जाता है इस दौरान भगवान शिव सृष्टि का संचालन करते हैं और देवशयनी एकादशी व्रत कथा का शास्त्रों में विशेष महत्व बताया गया है। कहते हैं इस व्रत की कथा सुनने मात्र से व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। आइए बताते हैं आपको इस कथा के बारे में।
वामन अवतार की कथा- वामन पुराण के अनुसार, एक बार राजा बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया था। यह देखकर इंद्र समेत अन्य देवी-देवता घबरा गए और भगवान विष्णु की शरण में पहुंच गए। देवताओं को परेशान देखकर भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए। राजा बलि ने वामन देवता से कहा कि जो मांगना चाहते हैं मांग लीजिए। इस पर वामन देवता ने भिक्षा में तीन पग भूमि मांग ली। पहले और दूसरे पग में वामन देवता ने धरती और आकाश और पूरा संसार को नाप लिया। अब तीसरे पग के लिए कोई जगह नहीं बची तो राजा बलि से वामन देवता ने पूछा कि तीसरा पग में कहां रखूं तब राजा बलि ने अपना सिर आगे कर दिया। भगवान विष्णु राजा बलि को देखकर काफी प्रसन्न हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा। बलि ने उनसे वरदान में पाताल लोक में बस जाने की बात कही। बलि की बात मानकर उनको पाताल में जाना पड़ा। ऐसा करने से समस्त देवता और मां लक्ष्मी परेशान हो गए। अपने पति विष्णुजी को वापस लाने के लिए मां लक्ष्मी गरीब स्त्री के भेष में राजा बलि के पास गईं और उन्हें अपना भाई बनाकर राखी बांध दी और उपहार के रूप में विष्णुजी को पाताल लोक से वापस ले जाने का वरदान ले लिया। माता लक्ष्मी के साथ वापस जाते हुए भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया की वह प्रत्येक वर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास की एकादशी तक पाताल में ही निवास करेंगे और इन 4 महीने की अवधि को उनकी योगनिद्रा माना जाएगा। यही वजह है कि दीपावली पर मां लक्ष्मी की पूजा भगवान विष्णु के बिना ही की जाती है।
भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी यह कथा- देवशयनी एकादशी व्रत कथा का वर्णन खुद भगवान श्रीकृष्ण ने किया है। कहा जाता है भगवान श्रीकृष्ण ने इस वृतांत को धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाया था। वहीं कथाओं के अनुसार, सतयुग में मांधाता नाम का एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था। एक बार उसके राज्य में तीन साल तक वर्षा नहीं हुई, जिसकी वजह से राज्य में भंयकर अकाल पड़ गया। अकाल की वजह से चारो ओर त्रासदी का माहौल बन गया। राज्य के लोगों के अंदर धार्मिक भावनाएं कम होने लगीं। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपना दर्द बताया, जिससे राजा भी चिंतित थे। राजा मांधाता को लगता था कि आखिर ऐसा कौन-सा पाप हो गया है, जिसकी सजा हमारे राज्य को ईश्वर दे रहा है। इस संकट से मुक्ति पाने के लिए राजा अपनी सेना के साथ ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम पहुंचे।
ऋषिवर ने उनको यहां आने का कारण पूछा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि हे ऋषिवर, मैंने हमेशा से पूरा निष्ठा से धर्म का पालन किया है, फिर मेरे राज्य की ऐसी हालत क्यों है। कृपया करके मुझे इसका समाधान दें। अंगिरा ऋषि ने कहा कि यह सतयुग है, यहां छोटे से पाप का भी बड़ा दंड मिलता है। अंगिरा ऋषि ने राजा को आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने को कहा। महर्षि ने कहा कि इस व्रत का फल जरूर मिलेगा और इसके प्रभाव से तुम्हारा संकट से भी निकल आएगा। महर्षि अंगिरा के निर्देश का पालन करते हुए राजा अपनी राजधानी वापस आ गए और उन्होंने चारों वर्णों सहित देवशयनी एकादशी का व्रत पूरा किया, जिसके बाद राज्य में मूसलधार वर्षा हुई।
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