दोस्तों आज हम आपको देश में चल रहे एक खास तरह के आंदोलन से आपको रूबरू कराएंगे. देश में चल रहे कई आन्दोलनों के बीच पिछड़ा राज्य झारखण्ड अभी चर्चा में है. चर्चा में होने का कारण है यहाँ की पत्थलगड़ी मूवमेंट. हाल ही में आपने सुना होगा कि,झारखण्ड के खूंटी से बीजेपी सांसद करिया मुंडा के घर कुछ पत्थलगड़ी समर्थकों ने धावा बोल दिया था और उनके 3 गार्ड को किडनैप कर लिया गया.
पत्थलगड़ी आंदोलन आदिवासियों समुदाय की एक प्रथा है. एक ऐसी प्रथा जो पत्थरों से जुड़ी है. इस प्रथा की स्थापना कब हुई थी इस बारे में कोई ख़ास जानकारी मिल नहीं पाती लेकिन यह सदियों से चली आ रही है. एक ऐसी प्रथा है जिसमें आदिवासी समुदाय, खासकर मुंडा आदिवासी अपने ख़ास मृतकों की यादों को संजोने के लिए पत्थरों के स्मारक बनाते थे.
लेकिन अब यह प्रथा एक नए रूप में झारखण्ड के कई गाँवों में देखने को मिल रही है. झारखण्ड की राजधानी रांची से 35 किलोमीटर आदिवासियों ने एक सीमा रेखा खींच दी है. इस सीमा रेखा के बाद कई गाँव बसे हुए है. हर गाँव के बाहर और इस सीमा रेखा के पास आपको हरे रंग के पत्थर दिखाई देंगे, जिसमें संविधान के कुछ बिंदुओं का जिक्र किया गया है.यहाँ के लोग सीमा बनाकर खुद के लिए आदिवसिस्तान की मांग कर रहे है. सामान्य तौर पर झारखण्ड में अड़की के दुरूह जंगलों में, टुटकोड़ा, शाके, समदा, कुरुंगा, मनहातू, टुबिल, लदीबेरा इलाकों में यह आंदोलन जोरो पर है वहीं अब आसपास के दूसरे गाँवों में भी यह तेजी से फैल रहा है.
इस सीमा रेखा के भीतर किसी को भी जाने की अनुमति नहीं है, जिस तरह से हमारे देशों की सीमाओं पर आर्मी की पहरेदारी होती है ठीक उसी तरह हथियारों के साथ यहाँ पर आदिवासी लोग गश्त देते है.इतना ही नहीं यहाँ के आदिवासी खुद के बनाए हुए कानून को मानते है और सरकारी नियमों और कानूनों का बहिष्कार करते है. यहाँ पुलिस, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री किसी का भी नियम नहीं माना जाता. इन गाँवों के आदिवासियों ने ग्राम सभा के फैसलों को मानना शुरू कर दिया है.
पत्थलगड़ी आंदोलन के बारे में इन लोगों का मानना है कि आजादी के बाद सालों से यहाँ पर गरीबी आज भी वैसी ही जैसे पहले थी. यहाँ लोग भुखमरी, बिमारियों से भी पीड़ित रहते है साथ ही किसी तरह की स्वास्थ्य सुविधाएं यहाँ देखने को नहीं मिलती है. ख़बरों के अनुसार यहाँ सरकार की किसी भी योजना का लाभ पहुंच नहीं पाता यही कारण है कि यहाँ के लोगों ने अब सरकार की किसी भी योजना को मानने से इंकार कर दिया है. हाल ही में ग्राम सभा के फैसले के अनुसार अब गाँव के बच्चे सरकारी स्कूलों में न जाकर आदिवासियों के द्वारे बनाए गए स्कूलों में जाते है. इन स्कूलों में इनका खुद का सिलेबस है.
हालाँकि पहले के समय में और आज के समय में जो पत्थलगड़ी आंदोलन चल रहा है, उसमें काफी अंतर है. पहले इस तरह के आन्दोलनों में किसी तरह की हिंसा नहीं देखी जाती थी लेकिन अब इसके मायने बदल दिए गए है. खुले तौर पर देखा जाए तो यहाँ पुरानी सरकारों की भी गलती नजर आती है जिन्होंने इन लोगों को अपने अधिकारों से दूर रखा, साथ ही उन लोगों की भी जो अधिकारों के नाम पर एक अच्छी प्रथा को हिंसा की ओर ले जा रहे.