‘लोकतंत्र की हत्या हो रही है...’ इस वाक्य की माला सबसे अधिक किसी राजनीतिक पार्टी ने जपी है, तो वो कांग्रेस है। लेकिन क्या आज की कांग्रेस, लोकतंत्र को मानने या उसका सम्मान करने को राजी भी है ? कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर सियासी गलियारों में चल रहे विश्लेषण में यही बातें सामने आ रही हैं। हाल में जारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनाव के महानाट्य ने इस सवाल को और गहरा कर दिया है कि क्या कांग्रेस आज केवल एक परिवार के दरबारियों का समूह होकर रह गई है, जिसके लिए देश और पार्टी के भविष्य से अधिक गांधी परिवार का भविष्य संवारना महत्वपूर्ण है?
कई नेताओं के मनाने, तीन राज्यों में प्रस्ताव पारित करने के बाद भी जब राहुल गांधी 2019 की हार को भुलाकर दोबारा अध्यक्ष पद का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हुए, तब कहीं जाकर 20– 22 साल बाद कांग्रेस में इस पद के लिए चुनाव कराए जाने की भूमिका बनी, किंतु पारिवारिक और राजनीतिक हितों ने उसमें भी सेंध लगा दी।
परिवारवाद के आरोप को धोने के लिए गांधी परिवार ने चुनाव से पैर पीछे तो खींचे, लेकिन कुर्सी का नियंत्रण अपने हाथ में रहे, इसलिए मोहरे के रूप में अपने वफादार अशोक गहलोत को आगे बढ़ा दिया। गहलोत का पार्टी प्रमुख बनना तय माना जा रहा था, जब तक राजस्थान में उन्होंने अपनी जादूगरी नही दिखाई थी। सीएम की कुर्सी और संगठन पर कमान, गहलोत को दोनों हाथ में लड्डू दिख रहे थे। जब दिल्ली तक इस धोखे का खंजर पहुंचा, तो हाईकमान की जुबान से आनन–फानन में एक और भरोसेमंद नाम निकला, दिग्विजय सिंह। अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह ये ऐसे नाम हैं, जिन्हे राजनीति में जादूगर तो कहा जाता है, लेकिन कांग्रेस को आज जिस बूस्टर डोज की जरूरत है, इस उम्र में इन दोनों नेताओं से उस जादू की उम्मीद करना बेमानी ही है। हालांकि, विचार और सियासी नापतौल बदलने के बाद अचानक दिग्विजय जी को पीछे हटने के निर्देश दे दिए जाते हैं और एक नया चहरा सामने आता है मल्लिकार्जुन खड़गे। राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के बहुत पुराने खिलाड़ी। कर्नाटक चुनाव और दलित वोटों को साधने के नाम पर 80 वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बन जाते है। यहां गौर करने वाली बात यही है कि गांधी परिवार चुनाव से अलग रहने की बात तो कह रहा है, लेकिन पार्टी पर नियंत्रण बना रहे, इसके लिए परदे के पीछे से चालें चल रहा है। खड़गे का अचानक चुनाव में आना या फिर लाया जाना, इसी बात का संकेत है, कि उन्हें ऊपर से निर्देश मिले हैं।
इस बीच एक नाम है, जो आज अपने खोए राजनीतिक वैभव को तलाश रही कांग्रेस को पुनर्जीवित कर सकता है, लेकिन वो शख्स शायद गांधी परिवार का रिमोट बनने को राजी न हो। वो हैं पार्टी के लोकसभा सांसद शशि थरूर, जो कांग्रेस के बागी गुट G–23 के सदस्य भी हैं और काफी समय से पार्टी में संगठनात्मक सुधार की वकालत भी कर रहे हैं। थरूर के साथ G–23 के सदस्य रहे गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल अपनी उम्मीदों को तिलांजलि देकर कांग्रेस से बरसों पुराना नाता तोड़ चुके हैं, किंतु थरूर लड़ रहे हैं, पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए। लेकिन, उनके इरादों पर पानी फिरता हुआ दिख रहा है, क्योंकि जिस तरह अनायास ही मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार बन गए हैं, या यूं कहें कि बना दिए गए हैं, उसको देखते हुए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि चुनाव का परिणाम पहले से ही लिखा जा चुका है। खड़गे के नामांकन में दिग्गज कांग्रेसियों का जमावड़ा, गांधी परिवार के इशारे के बिना लगना संभव नहीं है। यहां तक कि, गहलोत भी खड़गे के लिए खुलेआम वोट मांग चुके हैं, जिसकी शिकायत भी थरूर ने की थी, लेकिन उनकी सुने कौन। थरूर यह भी कह चुके हैं कि, कांग्रेस में बदलाव चाहने वाले उन्हें वोट करें, यानी वो अच्छी तरह जानते हैं कि, खड़गे, आलाकमान का ही मोहरा हैं और उनके नेतृत्व में पार्टी वैसी ही चलेगी, जैसी चलती आई है, यानी गांधी परिवार के आदेशानुसार। दरअसल, आलाकमान किसी ऐसे व्यक्ति को गद्दी पर बिठाना चाहता था, जो उनके बिना कोई फैसला लेना तो दूर, फैसले पर चर्चा भी करने की बैठक भी न बुलाए। दिग्विजय सिंह को इसलिए पीछे हटाया गया कि कहीं खड़गे के वोट न कट जाएं और कुर्सी हाथ से निकल जाए।
फिलहाल, कांग्रेस में जिस तरह का माहौल है, हर कोई आलाकमान का विश्वसनीय बनने की कोशिश में है, भले ही पार्टी को इसकी कीमत क्यों न चुकानी पड़े, जैसे पिछले कुछ चुनावों में चुकानी पड़ी है। कांग्रेस में योग्यता की लगातार अनदेखी हो रही है, सचिन पायलट, शशि थरूर जैसे नेता इसका ज्वलंत उदाहरण हैं, जो आज युवाओं में पार्टी की विचारधारा को विकसित कर सकते हैं, कांग्रेस में नई जान फूंक सकते हैं, किंतु गांधी परिवार की रिमोट अपने हाथ में रखने की तीव्र इच्छा, उन्हें पीछे धकेल देती है। क्योंकि ये संभव है कि वो हर हुक्म को बिना सोचे समझे बजा लाने की जगह सवाल करें और ये सवाल दशकों से आदेश देने वाले परिवार को नागवार गुजरे।
बहरहाल, जो भी हो, अब कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव एक औपचारिकता भर रह गया है, जिसके लिए आज मतदान हो रहा है और जिसका केवल ऐलान 19 अक्टूबर को होगा। खड़गे कांग्रेस के लिए संजीवनी बन पाते हैं या नहीं, इस सवाल का जवाब तो समय ही देगा, लेकिन वो गांधी परिवार के विश्वसनीय अवश्य रहेंगे और कुर्सी पर हाई कमान का दबदबा बना रहेगा। वहीं, शशि थरूर, गांधी परिवार के इस रवैए से जरूर निराश होंगे और वे आगे क्या कदम उठाते हैं, ये देखने लायक होगा। यदि कोई चमत्कार होता है और थरूर चुनाव जीत लेते हैं, तो ये कांग्रेस के उन नेताओं के लिए खुशखबरी होगी, जो पार्टी में सकारात्मक बदलाव चाहते हैं, मगर इसकी संभावना नजर नहीं आ रही है।
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