"मरी हुई संवेदनाएं
जलता हुआ देश"
रोड़ पर एक गाड़ी जल रही है, बिहार में शहर जल रहे है, पश्चिम बंगाल साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा है, बिहार पहले साम्प्रदायिकता की आग में था अब उसमें SC/ST ने घी डाल दिया. मध्यप्रदेश का भिंड मुरैना लाल हो गया, राजस्थान हमेशा से तपता आया है, लेकिन इस साल उसे और तपने के लिए करणी सेना, राजसमंद केस में मुस्लिम की हत्या, और दलितों के आंदोलन जैसी चीजों ने माचिस लगाई. कुछ समय पहले पंजाब, हरियाणा को डेरे वालों ने जलाया, जलने का खेल निरंतर जारी है, कभी पद्मावत वाले आकर इसे जलाते है और भारत माता की जय के झूठे नारे बुलंद करते है, फिर डेरे वाले आते है उनकी अलग कहानी है जो समझ से परे है, उसके बाद दंगाई जो यूपी-बिहार में अपना धंधा बना लिए है, फिर आते है दलित जो अपने ही भाइयों की सब्जियों की दुकाने तोड़कर इसे आंदोलन का नाम देते है, राजस्थान का राजसमंद हो, दिल्ली का मुस्लिमों के द्वारा गर्दन काटना हो, गौरक्षा के नाम पर परिवारोँ को उजाड़ना हो या और कोई हिंसा हो, लोग इसे लोकतंत्र कहते है, आज़ादी का हवाला देते है, मैं इसे भीड़तंत्र कहता हूँ.
बिना विचारधारा के कोई आंदोलन लोकतान्त्रिक कैसे हो सकता है, इसलिए क्यों न हम संविधान में लोकतंत्र की जगह भीड़तंत्र का उपयोग करे, दूसरे देशों को ये समझाना जरुरी है कि एक तरफ तुम विदेशी लोग जहाँ शिक्षा, मानवता के हालात सुधार कर हर दिन कुछ नया कर रहे हो, इंसानी जीवन के लिए हर दिन नए आयाम खोज रहे हो वहीं दूसरी ओर हमने देश को जलाने के नए-नए तरीके इज़ाद किए है, हम पढ़ाई से कोसों दूर है, पढ़ाई सिर्फ स्कूली पढ़ाई नहीं होती पढ़ाई वो होती है जब देश के छोटे से नुकसान से आपकी संवेदनाएं फूट-फूट कर रोए.
संवेदनाएं वो होती है जब भात मांगने वाली बच्ची आधार कार्ड, आधार कार्ड कहते हुए मर जाती है और आपके कानों में जूं नहीं रेंगती, संवेदनाएं वो होती है जब किसी गरीब को किसी अपने की लाश ढोने के लिए इस लोकतान्त्रिक देश में एक गाड़ी नहीं मिले, संवेदनाएं देखनी हो तो जाओ उन सैकड़ों घरों में जो घर दंगे से जलकर पुरे काले पड़ चुके है, अब वहां रौशनी नहीं होती, वहां सिर्फ आँखें रोती है जो बरसों ऐसे ही रोती रहेगी. संवेदनाएं वो भी होती है जब फूल सी प्यारी बच्ची के गुप्तांग में बलात्कार के बाद टाँके लगाए जाते है वो जोर-जोर माँ कहते हुए चीखती है, और हम स्त्री की मर्यादा का ढोंग करते पाए जाते है. काश कोई कोई इन संवेदनाओं को भी समझता जो अब कहीं न कहीं मरकर जन्नत में पहुंच गई है, कुछ के दिलों में संवेदनाएं आज भी ज़िंदा है लेकिन वो आखिरी सांसे ले रही है, और जो अपनी संवेदनाओं को कैसे न कैसे, लोगों से बचते-बचाते ज़िंदा रखे है उन संवेदनाओं का बीच सड़क पर मजाक उड़ाया जाता है, और मानवता फिर इस देश में हर दिन सैकड़ों बार सड़कों पर रौंदी जाती है, और हम ठहाका लगाकर हंस रहे होते है.
देश जलाने की इस प्रक्रिया के बारे में मैदान में उतरने वाले लोगों को शायद जानकारी नहीं है कि वो बेवजह एक ऐसी भीड़ का हिस्सा बन रहे है जो सिवाय तबाही के कुछ नहीं कर रही है, आंदोलन वैसे तो हर शोषित, पीड़ित तबके का हक़ है, लेकिन आंदोलन की भी दो दिशा होती है, एक वो जो कुछ अच्छे विचारों के साथ एक मंज़िल की और निरंतर बढ़ता है, जिसमें देश, और समाज की भलाई होती है, एक आंदोलन वो जिसकी कोई विचारधारा नहीं होती, ऐसे आंदोलन अपने ऊपर आग की लपटे पहने देशभर में बहते जाता है. आजकल लोकतंत्र में. सॉरी सॉरी माफ़ कीजियेगा भीड़तंत्र में तर्कों का खेल खत्म हो गया है. सभी तर्क मर गए है अब जो रह गई है वो है कुछ बातें जिनके न हाथ है न पैर फिर भी वो ज़िंदा है, ये बातें अच्छे विचार से कोसों दूर लोगों के दिलों में ज़हन में ऐसे बसी जैसे नालियों में बरसों से रुका हुआ कोई पानी हो जो हर समय बदबू करके आसपास के लोगों को जीने में दखल देता है.