कटाक्ष: हाथ जोड़ फिर तोड़—फोड़

कटाक्ष: हाथ जोड़ फिर तोड़—फोड़
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चुनावी मौसम आ गया है और एक बार फिर नेताओं को जनता की याद आने लगी है। लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं, सो नेताओं की सिरदर्दी शुरू हो गई है। विधानसभा चुनाव में जीत ही दिल्ली का रास्ता दिखाएगी। यह सोच सब नेता अपनी खोल से निकल गए हैं।

गली, मोहल्ले से लेकर राज्य, देश तक के नेता जनता के बीच पहुंच रहे हैं। गलियों की सफाई हो रही है, मोहल्लों में रौनक है। जो भूखे थे, उन्हें खाना मिल रहा है। दवाईयां भी दी जा रही हैं। बच्चों को खिलौने से लेकर घर के बजुर्ग के लिए सब कुछ है। जनता को और क्या चाहिए, उसका नेता आकर हाल—चाल पूछे, उससे मिले। इतना ही नहीं लोगों के काम भी फटाफट होने लगे हैं। जो काम सालों से लटके थे, वो दो दिन में होने लगे। आखिर चुनाव जो है जी। जनता बहुत खुश हो रही है कि उसका काम  हो  गया, वहीं नेताजी भी मुस्कुरा रहे हैं। 

एक नेताजी हैं, हमारे मोहल्ले में ही रहते थे, अब बड़े नेता बन गए, सो अपने बंगले में रहते हैं। चार साल से नदारद थे, कल अचानक  घर आ गए।  आते ही पिताजी के पैर  छुए और मां से कहा, चाची चाय पिला दो। मां ने तुरंत पिताजी को  इशारा किया, पिताजी जल्दी से बाजार भागे। चाय आई, चाय के साथ बढ़िया नाश्ता भी आया। नेताजी ने चाय पी और उनके साथियों ने नाश्ता खाया। हम देखते रह गए। पिताजी ने नेताजी पर 1000 रुपये खर्च कर दिए।  नेताजी चले गए, मां के  पैर छुए और बोले चाचाजी ध्यान रखना, चुनाव में फिर खड़ा हूं। मां बड़ी खुश हुईं कि देखो अब तक अपनी संस्कृति नहीं भूला और मेरे हाथ की चाय इसे अभी तक याद है। जाते ही मां बोली भाई वोट तो इसे ही देंगे, कितना सज्जन है, अब तक हमें नहीं भूला। 

मैं कुछ सोचकर नेताजी के काफिले में शामिल हो गई, तो बातें सुनाई दीं। साथी कह रहे थे बड़ा अच्छा नाश्ता था नेताजी। नेताजी मुस्कुराए। एक साथी बोला नेताजी उनके घर से लगी जमीन अपनी है, शॉपिंग  मॉल बनाना चाहता हूं, लेकिन ये घरवाले  घर देने को  तैयार नहीं है और घर वहां रहा, तो मॉल नहीं बनेगा। नेताजी ने कंधे उचकाए और बोले, अरे​ चिंता क्यों करते हो? मॉल बनेगा। अब देखो कितने खुश थे वो, वोट   अपने को ही देंगे और एक बार जीत गए, तो घर या तो खाली करा लेंगे या तुड़वा देंगे। साथी खुश बोला सही है नेताजी पहले हाथ जोड़ और फिर तोड़—फोड़। सब खिलखिला दिए। 

मैं सोचने लगी यही है इन नेताओं की असलियत। चुनाव आते ही बरसाती  मेंढ़क की तरह निकल आते हैं और चुनाव जीतते ही जिनने वोट दिया, उन्हीं को रुलाते हैं। इन्हें न तो किसी की भावनाओं की कद्र है और न ही किसी इंसान की। इन्हें तो सिर्फ कुर्सी का मोह है फिर वह ​कुर्सी किसी को रुलाकर हासिल की जाए या फिर किसी के पैरों में गिरकर। 

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