देश में 3 बार लागू हुआ आपातकाल, फिर इंदिरा गांधी को ही क्यों कहा जाता है 'तानाशाह' ?
देश में 3 बार लागू हुआ आपातकाल, फिर इंदिरा गांधी को ही क्यों कहा जाता है 'तानाशाह' ?
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नई दिल्ली: 25 जून 1975 की वह रात भारत के राजनीतिक इतिहास में अविस्मरणीय है, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तत्कालीन राष्ट्रपति को एक पत्र भेजा था। पत्र के साथ आंतरिक आपातकाल की घोषणा की एक मसौदा प्रति भी संलग्न थी। पत्र में श्रीमती इंदिरा ने राष्ट्रपति से संविधान द्वारा दी गई असाधारण शक्ति का उपयोग करने का आग्रह किया: "प्रिय राष्ट्रपति जी, जैसा कि आपको पहले ही बताया जा चुका है, कुछ समय पहले ही हमारे पास ऐसी सूचना पहुंची है जो यह संकेत देती है कि आंतरिक अशांति के कारण भारत की सुरक्षा को आसन्न खतरा है। यह मामला अत्यंत गंभीर है।" उन्होंने यह भी लिखा कि कैबिनेट से पूर्व अनुमोदन प्राप्त करने की सामान्य प्रक्रिया के लिए रात में समय नहीं है। उन्होंने कहा, "मैं कल सुबह सबसे पहले कैबिनेट के समक्ष इस मामले का उल्लेख करूंगी।"

उन्होंने भारत सरकार (कार्य संचालन) नियम 1961 का पालन नहीं किया, जिसके तहत मंत्रिमंडल से पूर्व अनुमोदन की आवश्यकता होती है। यही नहीं इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति के उच्च पद को लगभग आदेश देते हुए कहा था कि, "मैं अनुशंसा करती हूँ कि ऐसी घोषणा आज रात जारी की जानी चाहिए, चाहे इसके लिए कितनी भी देर क्यों न हो।" घोषणापत्र के संलग्न मसौदे पर राष्ट्रपति श्री फकरुद्दीन अली अहमद को केवल हस्ताक्षर करने का काम सौंपा गया। यह इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि कांग्रेस सरकार ने चुनाव में दो तिहाई बहुमत से जीत हासिल करने के बाद किस तरह काम किया।

कुछ ही समय में राष्ट्रपति की मुहर और हस्ताक्षर के तहत, "आपातकाल की घोषणा" घोषित कर दी गई, जिसमें कारण बताया गया कि "एक गंभीर आपातकाल मौजूद है जिससे भारत की सुरक्षा आंतरिक अशांति से ख़तरे में है।" तथाकथित "आंतरिक अशांति" का कोई अन्य विवरण घोषणा में नहीं बताया गया। क्या कोई युद्ध चल रहा था या कोई बड़ा आतंकी खतरा मंडरा रहा था ? आखिर किस आंतरिक अशांति की सूचना श्रीमती इंदिरा गांधी को मिली थी, जो उन्होंने देश के करोड़ों लोगों के मौलिक अधिकार छीन लिए ? दरअसल, देशवासियों को बाहरी आक्रमण और युद्ध की स्थिति के आधार पर आपातकाल की घोषणा के दो पहले के अनुभव थे, एक 1962 में और दूसरा 1971 में। एक बार चीन से युद्ध पर आपातकाल लगा था, दूसरी बार बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय, लेकिन इन दोनों के वक्त आम जनता को मुसीबत नहीं हुई, ना ही विपक्ष के लोगों को बिना किसी कानूनी कार्रवाई को जेल में डाला गया। लेकिन इंदिरा गांधी का आपातकाल पहले के दोनों से अलग था, ये केवल वैचारिक विरोधियों को कुचलकर अपनी सत्ता बचाने के लिए था। 

इस प्रक्रिया ने "किचन कैबिनेट" शब्द को लोकप्रिय बनाया, जिसमें तत्कालीन कैबिनेट ने अगली सुबह एक महत्वपूर्ण निर्णय को मंजूरी दे दी, जो उनकी पूर्व अनुमति के बिना लिया गया था। कैबिनेट के सदस्य केवल अपनी सुरक्षित राजनीतिक स्थिति और सत्ता के पालन के बारे में चिंतित थे। भारतीय संवैधानिक इतिहास में संविधान की ऐसी हत्या शायद ही कभी देखी गई हो। कुछ लोग इसे संवैधानिक तानाशाही कहते हैं क्योंकि इंदिरा गांधी ने साबित कर दिया था कि संविधान तानाशाही को बढ़ावा देने का एक साधन भी हो सकता है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला और आपातकाल की घोषणा :-

दरअसल, आपातकाल का मूल कारण 12 जून, 1975 को आया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला था, जिसमें अदालत ने इंदिरा गांधी के रायबरेली से सांसद के तौर पर चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया था। 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिद्वंद्वी राज नारायण ने उनके खिलाफ चुनाव में गड़बड़ी करने के लिए सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल का इल्जाम लगाते हुए मुकदमा किया था। मामले की जांच में आरोप सही पाए गए और इंदिरा गांधी को चुनाव में गड़बड़ी करने का दोषी पाए जाने पर उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया और अगले छह साल के उनके चुनाव लड़ने पर भी पाबन्दी लगा दी गई। ऐसे में अब इंदिरा गांधी के पास पीएम पद से इस्तीफा देने का ही रास्ता बचा था। वे सुप्रीम कोर्ट भी गईं, लेकिन वहां से भी इंदिरा गांधी को राहत नहीं मिली, हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को तो बरकरार रखा, लेकिन इतना कह दिया कि, अंतिम फैसला आने तक इंदिरा पीएम पद पर बने रह सकती हैं, लेकिन फैसले नहीं ले सकतीं। अब ये बिना शक्ति का प्रधानमंत्री पद बन चुका था, इंदिरा गांधी के हाथों से सत्ता खिसकने को थी, क्योंकि अंतिम फैसला कभी भी आ सकता था, इसके बाद ही अपनी सत्ता बचाने के लिए कांग्रेस ने आपातकाल का सहारा लिया।  

जेल में तब्दील हो गया देश:-

इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी आजाद भारत के इतिहास का काला अध्याय इसलिए माना गया, क्योंकि इस दौरान मेंटेनेंस ऑफ इंटर्नल सिक्योरिटी एक्ट (The Maintenance of Internal Security Act) या 'मीसा' एक्ट के तहत लोगों को जेलों में ठूंसने की सरकार को बेलगाम छूट हासिल हो गई थी। असहमति को बेरहमी के साथ कुचल दिया गया और नागरिक स्वतंत्रता को सरकार द्वारा रौंदने का काम किया गया। इमरजेंसी की घोषणा के कुछ घंटे के अंदर की प्रमुख अख़बारों के दफ्तरों में बिजली की आपूर्ति काट दी गई , ताकि कांग्रेस विरोधी खबरें ही ना छप सकें। एक झटके में देशवासियों से तमाम अधिकार छीन लिए गए। देश में केवल एक व्यक्ति का शासन लागू हो चूका था, वो जिसे चाहे उसे गिरफ्तार कर रहे थे, बिना किसी आरोप या मुक़दमे के।

चंद घटों में जयप्रकाश नारायण, राज नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जार्ज फर्नांडिस सहित कई विपक्षी नेताओं को अरेस्ट कर जेल में ठूंस दिया गया। इसी मीसा एक्ट के दौरान लालू प्रसाद यादव को भी जेल में डाल दिया गया, जो उस समय छात्रनेता थे और इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ आवाज़ उठा रहे थे। इस दौरान लालू को एक बेटी भी हुई, जिसका नाम उन्होंने मीसा रखा, ताकि उन्हें कांग्रेस के अत्याचारों की याद रहे, हालाँकि ये अलग बात है कि बाद में लालू खुद उसी नाव में सवार हो गए और कांग्रेस सरकार में रेल मंत्री बनकर नौकरी के बदले जमीन घोटाला किया, जिसमे वे परिवार सहित जमानत पर हैं।    

तोड़ डाला संविधान का मूल ढांचा :-

इस दौरान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 का दुरूपयोग करते हुए इंदिरा गांधी ने खुद असाधारण शक्तियां हासिल कर ली थी। आंतरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम (MISA) को एक अध्यादेश के जरिए बदल दिया गया, ताकि किसी भी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे के जेल में रखा जा सके। इसी दौरान भारतीय संविधान में सबसे विवादास्पद 42वां संशोधन किया गया, जिसने अदालतों की शक्ति को भी घटा दिया। इस संशोधन ने संविधान की मूल संरचना को तहस-नहस कर डाला था। इसी दौरान संविधान की प्रस्तावना में चुपचाप धर्मनिरपेक्ष (Secular) और समाजवादी (Socialist) शब्द जोड़ दिए गए, जो बाबा साहेब अंबेडकर के लिखे संविधान में थे ही नहीं। जबकि, खुद बाबा साहेब अंबेडकर लिखकर गए हैं कि, संविधान की प्रस्तावना में कभी कोई बदलाव नहीं हो सकता, इसके अनुच्छेदों में जरुरत पड़ने पर सबकी सहमति से संशोधन किया जा सकता है। किन्तु इंदिरा गांधी ने उस प्रस्तावना को भी बदल डाला, जिसे संविधान की आत्मा कहा जाता है और जनता को खबर तक ना हुई कि संविधान की धज्जियाँ किसने उड़ाई। देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस ने अपने शासनकाल में तक़रीबन 80 बार संविधान में बदलाव किया है।    

इंदिरा गांधी के राज में तो संवैधानिक संशोधनों को किसी भी आधार पर न्यायिक जांच से बाहर कर दिया गया, यानी अब अदालतें भी उसमे दखल देने लायक नहीं बची। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन की एक बार की अवधि को छह महीने से बढ़ाकर एक वर्ष कर दिया गया। इसी का इस्तेमाल करते हुए इंदिरा गांधी ने 50 बार जनता द्वारा चुनी गई राज्य सरकारों को बलपूर्वक बर्खास्त कर दिया और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया। जहाँ भी कांग्रेस की सरकार नहीं होती, उसे बर्खास्त कर दिया जाता और किसी भी विरोध को बलपूर्वक कुचल दिया जाता।  

इस इमरजेंसी के दौरान नसबंदी सबसे दमनकारी अभियान साबित हुआ था, जिसे लागू कराने का जिम्मा संजय गांधी पर था। संजय गांधी ने इस फैसले को लागू करने के लिए बेहद सख्त रुख अपनाया। लोगों के घरों में घुसकर, बसों से उतारकर और लोभ-लालच देकर और जबरस्ती भी कई लोगों की नसबंदी कर दी गई। एक रिपोर्ट के अनुसार, महज एक साल में ही देशभर में 60 लाख से अधिक लोगों की नसबंदी कर दी गई थी। जबरन नसबंदी के कारण लगभग 2,000 लोगों की मौत हो गई थी। 

21 मार्च 1977 को इमरजेंसी का बुरा दौर थमा। इसके बाद 1977 में भारत के छठे आम चुनाव हुए। इस लोकसभा चुनाव में जनता ने पहली गैरकांग्रेसी सरकार को चुनकर मानो आपातकाल के दौरान हुए सभी अत्याचारों का हिसाब ले लिया था। जनता ने कांग्रेस को ख़ारिज कर सत्ता की चाबी जनता पार्टी को सौंप दी। फिर कांग्रेस से ही अलग हुए 81 साल के मोरारजी देसाई को पहला गैरकांग्रेसी पीएम बनाया गया। ये आजादी के तीस वर्षों बाद बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी। इंदिरा गांधी खुद रायरेली की सीट से चुनाव हार बैठीं और कांग्रेस 153 सीटों पर ही सिमट गई।

1977 में मोरारजी सरकार ने आपातकाल के दौरान सत्ता के दुरुपयोग, कदाचार और ज्यादतियों के विभिन्न पहलुओं की जांच के लिए भारत के सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति जेसी शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग बनाया। आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया गया कि आपातकाल के दौरान एक लाख से अधिक लोगों को निवारक हिरासत कानूनों के तहत गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया था।

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