चेन्नई: हाल ही में डीएमके नेता और राज्यसभा सांसद एमएम अब्दुल्ला ने एक पत्र को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा। केंद्रीय रेल राज्य मंत्री रवनीत सिंह बिट्टू द्वारा भेजे गए हिंदी में पत्र का जवाब देते हुए, अब्दुल्ला ने तमिल में उत्तर दिया और सोशल मीडिया पर कहा कि उन्हें पत्र का एक भी शब्द समझ में नहीं आया। उन्होंने बताया कि बार-बार आग्रह करने के बावजूद केंद्रीय मंत्री का कार्यालय उन्हें हिंदी में ही पत्र भेजता रहा। अब्दुल्ला ने केंद्रीय मंत्री से आग्रह किया कि अब से पत्र अंग्रेजी में भेजे जाएं, ताकि वह उसे समझ सकें।
यह मामला एक बार फिर हिंदी और तमिल के बीच भाषाई मतभेद को उजागर करता है। डीएमके सांसद ने स्पष्ट किया कि उन्होंने केंद्रीय मंत्री के अधिकारियों को कई बार बताया था कि वह हिंदी नहीं समझ सकते, लेकिन इसके बावजूद उन्हें हिंदी में पत्र भेजे जा रहे हैं। इसे लेकर डीएमके सांसद ने तमिल भाषा में पत्र लिखकर अपने असंतोष को जाहिर किया।
गौरतलब है कि डीएमके पहले भी हिंदी थोपने के खिलाफ केंद्र सरकार पर आरोप लगाती रही है। जब गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि हिंदी को भारत में स्थानीय भाषा के बाद दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, अंग्रेजी की जगह, तो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन ने कहा था कि हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार करने से देश की अखंडता को नुकसान पहुंचेगा।
यहां सवाल यह उठता है कि जब डीएमके के नेता अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को प्राथमिकता देने के लिए तैयार हैं, तो आखिर हिंदी को स्वीकार करने में क्या समस्या है? भारत के करीब 70% भूभाग पर हिंदी बोली और समझी जाती है, फिर क्यों हिंदी और तमिल के बीच इस तरह का विभाजन पैदा किया जा रहा है? मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का यह कहना कि हिंदी को बढ़ावा देने से देश की अखंडता को नुकसान पहुंचेगा, एक महत्वपूर्ण बयान है। लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में हिंदी का बढ़ावा देश की एकता के लिए खतरा है, या फिर यह एक राजनीतिक खेल का हिस्सा है, जहां भाषावाद का सहारा लेकर वोट बैंक की राजनीति की जा रही है?
ऐसी परिस्थितियों में यह देखना होगा कि क्या डीएमके और अन्य क्षेत्रीय दल देश की एकता को प्राथमिकता देंगे, या फिर भाषाई मतभेद के नाम पर लोगों के बीच विभाजन पैदा करने का प्रयास करेंगे? आखिरकार, एकता और अखंडता के लिए भाषाई विविधता का सम्मान आवश्यक है, लेकिन उसका मतलब यह नहीं कि देश की एक प्रमुख भाषा को नजरअंदाज कर दिया जाए।
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