नई दिल्ली: विश्व महाशक्ति बनने के प्रयास कर रहा भारत इस समय पांच लाख डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के अनुसार प्रति हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन भारत में 1,674 लोगों की चिकित्सा के लिए एक डॉक्टर ही उपलब्ध है. यह स्थिति तब है जब कुपोषण और वातावरणीय स्थिति के चलते देश में बीमारियों का प्रकोप कुछ ज्यादा होता है.
भारत में डॉक्टरों की उपलब्धता की स्थिति पाकिस्तान, वियतनाम और अल्जीरिया जैसे देशों से भी बदतर है. देश में इस समय करीब साढ़े सात लाख सक्रिय डॉक्टर हैं. डॉक्टरों की कमी चिकित्सा व्यवस्था को सबसे ज्यादा गंभीरता से प्रभावित करती है.
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर गठित संसदीय समिति ने बीती मार्च में दी गई रिपोर्ट में भी यह बात कही है. चिकित्सा व्यवस्था में व्याप्त खामी के लिए संसदीय समिति ने प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों द्वारा ली जाने वाली अवैध कैपिटेशन फीस, शहरी और ग्र्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं में अंतर तथा चिकित्सा शिक्षा व जनस्वास्थ्य में साम्य न
होने को जिम्मेदार माना है.
देश में प्रतिवर्ष तैयार होने वाले 55 हजार डॉक्टरों में से 55 प्रतिशत प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों से आते हैं. ये मेडिकल कॉलेज भारी कैपिटेशन फीस लेते हैं. इसके चलते मेडिकल की पढ़ाई कई करोड़ रुपये में पड़ती है. आंकड़ों को देखने पर देश में चिकित्सा शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा भी सामने आती है.
देश की आबादी के हिसाब से एमबीबीएस की सीटों की काफी कमी है. देश में आधी आबादी वाले राज्यों में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए महज 20 प्रतिशत सीटें हैं. 31 प्रतिशत आबादी वाले छह राज्यों में एमबीबीएस की पढ़ाई की 58 प्रतिशत सीटें हैं. जन स्वास्थ्य के मानकों के लिहाज से देश कई गरीब देशों से भी पीछे हैं. ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका) देशों में उसका स्थान सबसे नीचे है.