लखनऊ: बुलंदशहर में 2018 में एक 17 वर्षीय नाबालिग लड़की से चलती कार में सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तीन दोषियों की मौत की सजा को बदलकर 25 साल कैद की सजा सुना दी। यह फैसला शुक्रवार, 4 अक्टूबर को आया, जब न्यायालय ने इस मामले को 'दुर्लभतम में दुर्लभतम' नहीं माना और दोषियों के सुधार और पुनर्वास की संभावना को ध्यान में रखते हुए उनकी सजा में कमी की।
इस अपराध ने 2018 में पूरे इलाके को हिला दिया था। पीड़िता का अपहरण कर चलती कार में उसके साथ बलात्कार किया गया, और जब वह चिल्लाने लगी, तो गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी गई। उसके बाद शव को एक नहर में फेंक दिया गया। इस वीभत्स घटना के बाद मार्च 2021 में बुलंदशहर की पॉक्सो कोर्ट ने जुल्फिकार अब्बासी, दिलशाद अब्बासी और इसराइल उर्फ मेलानी को मौत की सजा सुनाई थी, इसे समाज में डर फैलाने वाला और अत्यंत घृणित अपराध करार दिया था। हालांकि, दोषियों ने इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट ने कहा कि यह मामला 'दुर्लभतम में दुर्लभतम' की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए सिर्फ मौत की सजा देना उचित नहीं होगा। अदालत ने तीनों दोषियों की उम्र, उनका कोई पिछला आपराधिक रिकॉर्ड न होना, और उनके परिवार की जिम्मेदारियों को देखते हुए सजा को 25 साल कैद में बदल दिया।
सवाल उठता है कि क्या बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराध के दोषियों की सजा कम करना सही है? इस मामले में, जहां एक निर्दोष लड़की की जिंदगी खत्म हो गई, क्या उसका और उसके परिवार का न्याय केवल इतने पर पूरा हो सकता है? अपराधियों को 25 साल बाद जेल से रिहा कर दिया जाएगा, शायद उससे पहले भी वो जेल से बाहर आ जाएं ? लेकिन नाबालिग पीड़िता की जान वापस नहीं आ सकती। ऐसे अपराधियों की सजा कम करना क्या उन अपराधियों के हौसले नहीं बढ़ाएगा, जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं?
इसके अलावा, क्या अदालत का यह फैसला उन लोगों के लिए नकारात्मक संदेश नहीं है, जो पहले से ही समाज में डर और असुरक्षा महसूस कर रहे हैं? रेप और हत्या जैसे गंभीर अपराधों में सजा की कमी से अपराधियों के हौसले बढ़ सकते हैं, और इससे समाज में अपराध की संभावना भी बढ़ सकती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इस तरह के फैसले को इंसाफ कहा जा सकता है, खासकर उस परिवार के लिए जिसने अपनी बेटी को हमेशा के लिए खो दिया है?
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