मध्यप्रदेश में मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों पर राज्य सरकार ध्यान नहीं दे रही है. 50 से अधिक मामले ऐसे हैं, जिनमें सिफारिशों के संदर्भ में आयोग बार-बार रिमाइंडर भेज चुका है. पुलिस सहित अन्य कई महकमों में आयोग के पत्रों को गंभीरता से नहीं लिया तो आयोग को हाई कोर्ट की शरण लेनी पड़ी.आयोग, पुलिस अभिरक्षा अथवा जेल में होने वाली मौतों पर क्षतिपूर्ति संबंधी अनुशंसा करता है, लेकिन इस पर अभी कोई नीति नहीं बनी है.आवारा श्वान (कुत्ते) के काटने से नागरिकों के जख्मी होने और मौत के मामले में आयोग ने शासन से क्षतिपूर्ति देने की अनुशंसा की थी, लेकिन शासन की तरफ से जब कार्रवाई नहीं हुई तो आयोग ने हाई कोर्ट में प्रकरण लगाया.
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आपकी जानकारी के लिए बता दे कि इसके बाद कोर्ट द्वारा शासन को नोटिस जारी किए गए. बताया जाता है कि पुलिस, स्वास्थ्य एवं राजस्व विभाग से जुड़े कई तरह के प्रकरणों की सिफारिशें ठंडे बस्ते में पड़ी हैं. इनमें खासतौर पर आत्महत्या, अप्राकृतिक मौत एवं श्वानों के काटने जैसे मामले ज्यादा हैं. रिमांडर के भी जवाब नहींआयोग के सूत्रों का दावा है कि पुलिस, स्वास्थ्य और जेल विभाग से जुड़े मामले ज्यादा संख्या में आते हैं. इसके अलावा राजस्व विभाग से संबंधित प्रकरण मसलन पेंशन, क्षतिपूर्ति न मिलने, जमीनों के सीमांकन, नामांतरण और अवैध कब्जे प्रकरण भी सुनवाई में आते हैं.
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मानवाधिकार हनन के प्रकरणों में आयोग स्वयं भी संज्ञान लेकर अनुशंसा भेजकर जांच प्रतिवेदन तलब करता है, लेकिन पत्र और रिमांडर भेजने के बावजूद आयोग को जवाब नहीं मिलता. कई मामलों में आयोग ने अब समयबद्ध और नामजद पत्र भेजकर जानकारी भेजने संबंधी सख्त पत्र भी विभागों को भेजे हैं. इसलिए गए हाई कोर्ट आयोग का कहना है कि शासन के स्तर पर क्षतिपूर्ति के बारे में नीतिगत निर्णय हो जाना चाहिए, ताकि सभी पीडि़तों को एक समान राहत मिल सके. आयोग का तर्क है कि जब सर्प दंश की मौतों पर सरकार पीडि़त परिवार को मुआवजा देती है तो इसी सूची में श्वान के काटने के मामले भी शामिल कर लिए जाएं, लेकिन बार-बार कहने के बावजूद कार्रवाई हुई तो मानवाधिकार अधिनियम की धारा 18 के तहत आयोग हाई कोर्ट चला गया.
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