सबसे पहले तो आप सभी लोगो को दिवाली की राम राम....दिवाली कह ले या दीपावली बात तो एक ही है. बात करे उस अँधेरे को मिटाते हुए दिए की या उस ख़ामोशी को चीरते हुए पटाखे की, हर कही एक उल्लास भरा होता है. एक अनकही सी ख़ुशी होती है जिसे हम अपनों से मिलकर, उन्हें अपने हाथो से मिठाई खिलाकर बयां करते है. सभी अपनों से मिलते है और प्यार बांटते है. लेकिन इस बीच कही एक बात दिल में यह भी चुभती है कि कही कुछ लोग ऐसे भी है जो आज भी उन जलते हुए पटाखों को देखकर खुश तो है लेकिन यह पटाखे वे खुद नही जला रहे है. एक मुह से दूसरे मुंह तक मिठाई जाते हुए देख तो रहे है लेकिन खुद खा नहीं पा रहे है. लेकिन वे खुश है कि ये दिवाली है.....रौशनी की मोजुदगी नहीं है उनके घरो में लेकिन आँखों में एक तेज है....हो भी क्यों ना वे खुश है कि ये दिवाली है.
ये हमारे भारतवर्ष के वही लोग है जो सुबह से लेकर शाम तक कही ना कही मजदूरी करते है और अपना पेट पालते है. वक़्त और हालात की मज़बूरी के चलते ये वे खुशियां तो नहीं खरीद पाते है जो अमीरो की चौखट पर सजती है. वो रंबिरंगी फुलझड़ियां तो नहीं छोड़ पाते जिनसे एक रौशनी होती है. लेकिन इनके पास एक ना कह सकने वाली उम्मीद होती है जो इनकी मुस्कान में ना जाने कहाँ से झलक पड़ती है. इनके चेहरे पर आपको इस दिवाली के सेलिब्रेशन का सुख देखने को मिले या न मिले लेकिन हमे कभी गरीबी का दुःख देखने को नहीं मिलता. वो दिवाली के आगमन पर घरो की सफाई, वो रंगरोगन, वो ख़ुशी जो हमें इनके घरो में देखने को मिलती है उसे शायद हम कही और नहीं देख पाते है. दिवाली को मनाने की उत्सुकता जो इनके चेहरो से झलकती है वो अमीरी के पटाखों और झालरो में नहीं देखी जाती.
ये दिवाली तो त्यौहार है गरीबो का...
अमीरो की तो वैसे भी हर रोज़ ही दिवाली है...!!
सही कहा है किसी ने, त्योहारो का सही मतलब भी हमें ये लोग ही बताते है. क्योकि इनके पास इनको मनाने की एक वजह होती है जो कही ना कही आज शहर की चकाचोंध में गुम सी हो रही है. शहरो में अमीरी का दलदल देखने को मिलता है...जहाँ रौशनी भी अँधेरे को दूर करती है और पटाखे भी उन खुशियो को सबके सामने रखते है...लेकिन गांव में एक गरीब के घर पर कभी बुझता-कभी जलता एक दिया भी इस चकाचौन्ध को मात देता है. वो दिया कभी बुझता है लेकिन एक उम्मीद के साथ फिर जल उठता है कि वही है जो इस पर्व को रोशन किए हुए है. वहां पटाखों का शोर कम ही सुनाई देता है लेकिन कानो में पड़ने वाली हंसी मन को मयूर बना देती है. दिवाली के त्यौहार का जश्न उस चौखट पर देखने को मिलता है जहाँ खुशियो को बाटने के लिए पूरा गरीब परिवार साथ बैठा होता है. उस जश्न में दिल से जुडी हुई एक ख़ुशी देखी जाती है महसूस की जाती है. जैसे-
महसूस करो उन गरीबो की खुशियो को,
जो कही आकस्मक ही ठहाको में गूंज उठती है...
जिसे नहीं किसी पटाखे का लोभ,
वो पडोसी के बनाए मीठे भेजियो में खिल उठती है...
ये ख़ुशी वो रंगोली की तरह है,
जो बनने पर खुद ही बोल उठती है...
ये महक है उस जलते हुए दिए की तरह,
जो बुझती है जलती है और अचानक ही ख़ौल उठती है..!!
कही न कही एक बड़ा फर्क बन बैठा है अमीर और गरीब दिवाली के बीच, जिसे शायद हम चाह कर भी नहीं मिटा सकते. क्योकि ये वो फर्क है जो भावनाओ के साथ जुड़ा हुआ है जो अमीरी का साथ तो छोड़ चूका है लेकिन आज भी गरीब के साथ बना हुआ है. वो गरीब परिवार ही इसकी नींव को मजबूत बनाकर रखे हुए है....वे आज भी इस पर्व को सही मायने दिए हुए है...इनके चेहरे पर आज भी त्यौहार के आने की ख़ुशी बनी होती है और इंतजार होता है उन आखो में इसके आगमन का...क्योकि यही वे लम्हे है जिन्हें वे खुलकर जीते है..जश्न मानते है नाचते गाते है, सबका साथ निभाते है....शायद इसीलिए किसी ने खूब कहा है-
गरीबों की बस्ती में जाकर तो देखो जनाब,
वहाँ बच्चे भूखे तो मिलेंगें पर उदास नहीं..!!
तो चलिए हम भी मानते है इस दिवाली के त्यौहार को...लेकिन एक गरीब की तरह जिसकी आँखों में इसे मनाने की चमक हो और एक वजह हो इसका जश्न मनाने की.....अपने परिवार के साथ-अपने अपनों के साथ....और एक बार फिर से दिवाली की राम-राम..!!
हितेश सोनगरा