भारत के बारे में एक उक्ति काफी मशूहर है, 'कोस कोस पर बदले पानी चार कोस पर बानी' . ये उक्ति भारत की विविधता को दर्शाती है. लेकिन वर्तमान में जिस तरह से लोग पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, उतनी ही तेज़ी से उनके भीतर सदियों से बसी भारतीय संस्कृति धीरे-धीरे दम तोड़ने लगी है. वसुधैव कुटुम्बकम की मान्यता रखने वाले भारत देश में किसी दूसरे देश की संस्कृति और संस्कार को उचित आदर दिया जाता है, लेकिन जब हम अपनी ही जड़ों को भूलकर विदेशी संस्कृति को अपनाना चाहते हैं, तो परिणाम हानिकारक होते हैं. कुछ ऐसा ही हो रहा है हमारी मातृभाषा हिंदी के साथ.
हिंदी, जिसकी पहचान और घनिष्ट सम्बन्ध हिन्द , सिंध और हिंदुस्तान से है, वही हिंदी आज अपनों के ही बीच में अपमानित हो रही है. मौजूदा पीढ़ी के मन में अपनी मातृभाषा हिंदी के प्रति हीनभावना पैदा हो रही है, ये पीढ़ी अंग्रेजी वार्तालाप को अपना सम्मान समझती है, जबकि हिंदी में बात करने में हिचकती है. हालांकि,विदेशी जबान सीखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि हम अपनी ही संस्कृति भूल जाएं.
यूनेस्को की 2010 की इंटरैक्टिव एटलस की रिपोर्ट कहती है कि भारत अपनी भाषाओं और बोलियों को भूलने के मामले में अव्वल नंबर पर है. हालांकि इस तथ्य से कई लोगों के मन में ये सवाल उठता है कि अगर हम एक भाषा या बोली भूल भी जाएं तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा, तो हम आपको बता दें कि एक भाषा का ख़त्म होना, मात्र भाषा का ख़त्म होना ही नहीं होता, बल्कि उस पूरी सभ्यता का ख़त्म होना होता है. अगर हम अपनी विरासत, अपनी संस्कृति को बचाना है तो राष्ट्रभाषा हिंदी सहित, भारत की अन्य बोलियों और भाषाओं के गौरव को बनाए रखना होगा. अन्यथा हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए हिंदी भी संस्कृत जितनी जटिल हो जाएगी.
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