अपने ही देश में कैसे अल्पसंख्यक हो गए ईसाई? जानिए कहानी 'लेबनान' की..

अपने ही देश में कैसे अल्पसंख्यक हो गए ईसाई? जानिए कहानी 'लेबनान' की..
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बेरुत: लेबनान की ऐतिहासिक यात्रा जटिल, सांस्कृतिक रूप से विविध, और धार्मिक संघर्षों से भरी रही है। यह देश कभी एक ईसाई बहुल राष्ट्र था, लेकिन धीरे-धीरे मुस्लिम बहुल बन गया। इस लेख में हम इस परिवर्तन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक घटनाक्रम और ईसाईयों की स्थिति पर चर्चा करेंगे, और उन प्रमुख सवालों का उत्तर देंगे, जिनमें शामिल हैं: क्या लेबनान के ईसाईयों का नरसंहार हुआ, या उनका धर्म परिवर्तन किया गया?

लेबनान की धार्मिक संरचना का ऐतिहासिक संदर्भ

लेबनान में धार्मिक संतुलन को समझने के लिए हमें उसके इतिहास में गहराई से देखना होगा। लेबनान का क्षेत्र रोमन साम्राज्य और बाद में बीज़ेंटाइन साम्राज्य के अंतर्गत था, जहां प्रारंभिक ईसाई धर्म की जड़ें गहरी थीं। यह क्षेत्र ईसाई धर्म के प्रसार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था और यहां मरोनाइट ईसाई समुदाय का विकास हुआ। 7वीं शताब्दी में इस्लाम का उदय हुआ और अरबों ने इस क्षेत्र को जीत लिया, जिसके बाद धीरे-धीरे मुस्लिम प्रभाव बढ़ने लगा।

 

हालांकि, ओटोमन साम्राज्य के तहत (1516-1918), लेबनान में ईसाई और मुस्लिम दोनों प्रमुख धार्मिक समुदाय बने रहे। ओटोमन शासन के दौरान, मरोनाइट ईसाईयों ने लेबनान के पहाड़ी इलाकों में सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता बनाए रखी। इस समय मुस्लिम जनसंख्या भी बढ़ने लगी, विशेषकर सुन्नी और शिया मुसलमानों की।

औपनिवेशिक काल और फ्रांसीसी प्रभाव

प्रथम विश्व युद्ध के बाद, ओटोमन साम्राज्य का पतन हुआ और लेबनान फ्रांस के नियंत्रण में आ गया। 1920 में, ग्रेटर लेबनान की स्थापना की गई, जिसमें लेबनान के ईसाईयों और मुसलमानों के बीच एक असंतुलन साफ दिखने लगा। फ्रांसीसी शासन के दौरान मरोनाइट ईसाईयों को सत्ता में प्राथमिकता दी गई, जिससे उन्हें आर्थिक और राजनीतिक लाभ मिला।

लेबनान की स्वतंत्रता और सत्ता बंटवारे का फार्मूला

1943 में लेबनान ने स्वतंत्रता प्राप्त की, और देश की राजनीतिक संरचना को धार्मिक आधार पर विभाजित किया गया। इसे National Pact के तहत व्यवस्थित किया गया, जिसमें यह तय किया गया कि राष्ट्रपति ईसाई होगा, प्रधानमंत्री सुन्नी मुस्लिम और संसद का अध्यक्ष शिया मुस्लिम होगा। यह फार्मूला ईसाई-मुस्लिम संतुलन बनाए रखने के लिए बनाया गया था। उस समय जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा ईसाई था, और उनकी शक्ति देश की राजनीति और समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी।

जनसांख्यिकी में बदलाव और मुस्लिम बहुलता

लेबनान में धार्मिक जनसांख्यिकी धीरे-धीरे बदलने लगी। 20वीं सदी के मध्य में, मुस्लिम समुदाय की आबादी तेजी से बढ़ने लगी। इसका एक प्रमुख कारण उच्च मुस्लिम जन्म दर और अन्य इस्लामी देशों से घुसपैठ भी थी। इसके साथ ही, 1948 में इज़राइल के निर्माण के बाद हजारों फिलिस्तीनी शरणार्थी लेबनान में बस गए, जिनमें अधिकांश सुन्नी मुस्लिम थे। इससे लेबनान की धार्मिक संरचना में एक बड़ा परिवर्तन आया, जिससे देश में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ गई।

1975-1990 का गृहयुद्ध

लेबनान का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ 1975-1990 का गृहयुद्ध था, जिसने धार्मिक विभाजन को और गहरा कर दिया। यह युद्ध कई कारणों से भड़का, लेकिन मुख्य मुद्दों में से एक धार्मिक और राजनीतिक शक्ति का असंतुलन था। इस युद्ध में ईसाई और मुस्लिम मिलिशिया समूहों के बीच लड़ाई हुई, जिसमें हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग बेघर हुए।

गृहयुद्ध के दौरान ईसाईयों को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ, क्योंकि मुसलमानों की तादाद काफी बढ़ चुकी थी, अब ईसाई मुकाबला करने लायक नहीं रहे। लेकिन फिर भी ईसाई मिलिशिया समूहों, जैसे कि फालांगिस्ट और लेबनीज फोर्सेज, ने मुसलमानों के साथ संघर्ष किया, लेकिन उन्हें सीरिया और फिलिस्तीनी संगठनों से समर्थन प्राप्त करने वाले मुस्लिम मिलिशिया से भारी विरोध का सामना करना पड़ा। 1990 में युद्ध समाप्त होने के बाद, तैफ समझौते के तहत लेबनान में सत्ता बंटवारे का नया फार्मूला तय किया गया। इस समझौते ने मुस्लिम समुदाय को अधिक राजनीतिक शक्ति दी, जिससे ईसाईयों की राजनीतिक स्थिति कमजोर हुई। धीरे-धीरे, मुस्लिम बहुलता स्पष्ट हो गई, खासकर शिया और सुन्नी समुदायों के बीच शक्ति संतुलन बदल गया।

गृहयुद्ध और राजनीतिक अस्थिरता के कारण और धार्मिक उत्पीड़न सहने के बाद बड़ी संख्या में ईसाईयों ने लेबनान छोड़ दिया। इस प्रवासन ने लेबनान की धार्मिक जनसंख्या में और भी बड़ा अंतर पैदा किया। आज भी लेबनान में ईसाईयों की एक महत्वपूर्ण संख्या है, लेकिन वे अल्पसंख्यक हैं। लेबनान में आज भी राजनीतिक और सामाजिक ढांचा सांप्रदायिक विभाजन पर आधारित है, लेकिन ईसाई समुदाय की राजनीतिक शक्ति पहले जैसी नहीं रही।

लेबनान का ईसाई बहुल देश से मुस्लिम बहुल बनने का सफर एक लंबी और जटिल प्रक्रिया रही है, जिसमें धार्मिक और राजनीतिक संघर्षों का बड़ा योगदान है। जनसांख्यिकी में बदलाव, राजनीतिक अस्थिरता और गृहयुद्ध के परिणामस्वरूप ईसाईयों की स्थिति कमजोर हुई और बड़ी संख्या में ईसाई लेबनान से बाहर चले गए। आज भी लेबनान में ईसाई समुदाय अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान बनाए हुए है, लेकिन उनकी राजनीतिक शक्ति पहले की तुलना में काफी कम हो गई है, और कभी सोने की मंडी कहा जाने वाला लेबनान आज इस्लामी कट्टरपंथियों के कारण बर्बादी के कगार पर खड़ा है। लेबनान का यह इतिहास धार्मिक विविधता और संघर्ष की कहानी है, जो इस क्षेत्र की राजनीति और समाज को आज भी प्रभावित करता है।

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