कश्मीर का इतिहास विवादों और संघर्षों से भरा हुआ है। 1947 में भारत की स्वतंत्रता और विभाजन के बाद से यह क्षेत्र लगातार राजनीतिक उठा-पटक का केंद्र बना रहा है। कश्मीर की कहानी, उसके शासकों, राजनीतिक नेताओं और वहां हुए चुनावों के इर्द-गिर्द घूमती है। खासकर महाराजा हरि सिंह से लेकर शेख अब्दुल्ला तक के बीच की राजनीति ने कश्मीर के इतिहास में अहम भूमिका निभाई है। आइए जानते हैं कि स्वतंत्रता के बाद कश्मीर का भारत में कैसे विलय हुआ और इसके बाद कश्मीर की राजनीति ने किस दिशा में करवट ली।
भारत में कश्मीर का विलय कैसे हुआ?: 1947 में जब भारत का विभाजन हुआ, उस समय कश्मीर एक स्वतंत्र रियासत थी। कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने भारत या पाकिस्तान में से किसी भी देश में विलय करने का निर्णय नहीं लिया था। उन्होंने एक स्वतंत्र राज्य के रूप में कश्मीर को बनाए रखने की इच्छा जताई थी। लेकिन इस दौरान पाकिस्तान समर्थित कबाइलियों ने कश्मीर में घुसपैठ कर दी। इस हमले से निपटने के लिए महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने शर्त रखी कि कश्मीर को भारत में विलय करना होगा, तभी भारतीय सेना उनकी मदद करेगी।
29 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय की संधि पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों का मुकाबला किया और कश्मीर का बड़ा हिस्सा सुरक्षित रहा, जबकि कुछ हिस्से पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया, जिसे आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहा जाता है।
शेख अब्दुल्ला का राजनीतिक उदय: कश्मीर के भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला, जो कि एक प्रमुख कश्मीरी नेता थे, उन्होंने राजनीति में बड़ा कद हासिल किया। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के लोगों के बीच खासा समर्थन पाया और वे कश्मीर के नेता बनकर उभरे। उनकी पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कश्मीर की राजनीति पर लंबे समय तक अपनी पकड़ बनाए रखी। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग की, जिसे बाद में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के रूप में मान्यता दी गई। इस अनुच्छेद के तहत कश्मीर को विशेष स्वायत्तता और अधिकार मिले, जिसे हाल ही में 2019 में हटाया गया।
कश्मीर में चुनाव और राजनीतिक हालात: कश्मीर में समय-समय पर विधानसभा और लोकसभा चुनाव होते रहे हैं। इन चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) और अन्य राजनीतिक दलों ने हिस्सा लिया। शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने लंबे समय तक सत्ता में रहते हुए कश्मीर की राजनीति पर अपनी पकड़ बनाए रखी।
कश्मीर में होने वाले चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों पर भी वोट डाले जाते हैं। लोकसभा चुनावों के अलावा, कश्मीर में पंचायत चुनाव भी होते हैं, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों के लोग स्थानीय प्रतिनिधियों का चयन करते हैं।
कश्मीर की राजनीति में उथल-पुथल भी कम नहीं रही। 1987 में हुए चुनावों के बाद कश्मीर में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ, जिसने आतंकवाद और अलगाववादी आंदोलनों को हवा दी। 1990 के दशक में आतंकवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण कई वर्षों तक चुनावी प्रक्रिया ठप रही, लेकिन बाद में धीरे-धीरे लोकतांत्रिक प्रक्रिया फिर से शुरू हुई। कश्मीर का भारत में विलय और इसके बाद की राजनीति काफी जटिल रही है। महाराजा हरि सिंह से लेकर शेख अब्दुल्ला तक के नेतृत्व ने कश्मीर को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को मिला विशेष दर्जा और वहां की चुनावी प्रक्रिया ने कश्मीर की राजनीति को प्रभावित किया है। समय के साथ, कश्मीर की राजनीति में भी बदलाव हुए और आज यह क्षेत्र एक नए राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य का सामना कर रहा है।
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