नई दिल्ली: 30 अप्रैल 1870 को जन्मे धुंदीराज फाल्के ने सिनेमा की दुनिया में उस वक्त कदम रखा जब भारत में सिनेमा का कोई अस्तित्व ही नहीं था। जी हाँ और उन्ही को दादा साहेब कहा जाता है जिन्होंने फिल्मों को जीवन दिया और नई पहचान भी। आप सभी को बता दें कि बता दें कि दादा साहेब का निधन 16 फरवरी 1944 को हुआ था। वह भारतीय सिनेमा उद्योग दुनिया में हर साल सबसे ज्यादा फिल्में बनाने के लिए जाना जाता है। कहा जाता है भारत का लगभग हर दूसरा नौजवान फिल्मों में काम करने के बारे में सोचता है, लेकिन इसको शुरू करने में काफी मुश्किलें आईं थीं। जी दरअसल साल 1910 में तब के बंबई के अमरीका-इंडिया पिक्चर पैलेस में ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दिखाई गई थी।
वहीं थियेटर में बैठकर फिल्म देख रहे धुंदीराज गोविंद फाल्के ने तालियां पीटते हुए निश्चय किया कि वो भी भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे। उसके बाद दादा साहेब ने अपनी फिल्म को बनाने के लिए इंग्लैंड जाकर फिल्म में काम आने वाले कुछ यंत्र लाने के बारे में सोचा और इस यात्रा में उन्होंने अपनी जीवन बीमा की पूरी पूंजी भी दांव पर लगा दी। वहीं इंग्लैंड पहुंचते ही सबसे पहले दादा साहेब फाल्के ने बाइस्कोप फिल्म पत्रिका की सदस्यता ली और दादा साहेब तीन महीने की इंग्लैंड यात्रा के बाद भारत लौटे। वहीं उसके बाद उन्होंने बंबई में मौजूद थियेटरों की सारी फिल्में देख डाली और करीब दो महीने तक वो हर रोज शाम में चार से पांच घंटे सिनेमा देखा करते थे और बाकी समय में फिल्म बनाने में लगे रहते थे। ऐसा होने से उनकी सेहत पर असर पड़ा और करीब-करीब उनकी आंखो की रोशनी चली गई। हालाँकि फिर भी वह हार नहीं माने तो उन्होंने शुरू की वह फिल्म जिसे आज हम हिंदुस्तान की पहली फीचर फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के नाम से जानते हैं।
जी दरअसल दादा साहेब अपनी इस फिल्म के सबकुछ थे। जी हाँ, उन्होंने इसका निर्माण किया, निर्देशक भी वही थे, कॉस्ट्यूम डिजाइन, लाइटमैन और कैमरा डिपार्टमेंट भी उन्हीं ने संभाला था। इसके अलावा वह फिल्म की पटकथा के लेखक भी थे। 3 मई 1913 को इसे कोरोनेशन सिनेमा बॉम्बे में रिलीज किया गया। यह भारत की पहली फिल्म थी। वहीं राजा हरिश्चंद्र की सफलता के बाद दादा साहेब फाल्के ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। राजा हरिश्चंद्र से शुरू हुआ उनका करियर 19 सालों तक चला। अपने फिल्मी करियर में उन्होंने 95 फिल्म और 26 शॉर्ट फिल्में बनाईं। जी हाँ और उनकी बेहतरीन फिल्मों में मोहिनी भस्मासुर (1913), सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्री कृष्ण जन्म (1918) और कालिया मर्दन (1919) शामिल हैं।
इसके अलावा उनकी आखिरी मूक मूवी सेतुबंधन थी और आखिरी मूवी गंगावतरण थी। आप सभी को बता दें कि उनके सम्मान में भारत सरकार ने 1969 में 'दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड' देना शुरू किया। जी दरअसल यह भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है और सबसे पहले यह पुरस्कार पाने वाली देविका रानी चौधरी थीं। साल 1971 में भारतीय डाक ने दादा साहेब फाल्के के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया और उसपर उनका चित्र था।
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